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________________ [४] सत्पुरुषों के सामने हगारी काव्यरचना को उद्दीपित ( प्रकाशित ) करते है। परन्तु उन्होंने, अपने ग्रंथ में, जन स्वकीय और परकीय पयों का प्रायः कोई भेद नहीं रक्खा तब ग्रंथ के कौन से पद्यों को 'दीपक' और कौनसों को उनके द्वारा 'उद्दीपित' समझा जाय, यह कुछ समझ में नहीं आता । साधारण पाठक तो उन दस पांच पयों को छोड़कर निन्हें 'उक्तंच', 'मतान्तर' तथा 'अन्यमतम्' मादि नामों से उल्लखित किया गया है और जिनका उक्त संग्रह में कोई खास बिक भी नहीं किया गया अथवा ज्यादा से ज्यादा कुछ परिचित पद्यों को भी उनमें शामिल करके, शेष सब पयों को मारकजी की ही रचना समझने हैं और उन्हीं के नाम से उनका उल्लेख भी करते हुए देखे जाते हैं। क्या यही महारकजी की कान्परचना का सचा उद्दीपन है । अथवा पाठकों में ऐसी अक्षत समझ उत्पन्न करके काव्यकीर्ति का लाभ उठाना से इसका एक उद्देश्य है । मैं तो समझता हूँ पिछली बात ही ठीक है और इसीसे उन पचों के साथ में उनके लेखको अथवा ग्रंथों का नाम नहीं दिया गया और न दूसरी ही ऐसी कोई सूचना साप में की गई जिससे' वे पढ़ते ही पुरातन पच समझ लिये जाते । पत्र के उत्तरार्ध में महारकनी, अपनी कुछ चिन्तासी व्यक्त करते हुए, लिखते हैं-'यदि मैं नाना शास्त्रों के मतान्तर की नवीनप्राय रचना करता तो इस ग्रंथ का तेन पाता-अथवा यह मान्य होता इसकी मुझे कहा पाणथी। और फिर इसके मनन्तर ही प्रकट करते हैं-इसीलिये कुछ सुधीजन 'प्रयोगवद' होते हैं-आधीन प्रयोगों का उल्लेख करदेना ही उचिव समझते हैं।' *पं० पन्नालालजी सोनी ने इस पद्य के उत्तरार्ध का अनुवाद पाही विलक्षण किया है और वह इस प्रकार है " यद्यपि मैने अनेक शान और मतो से सार लेकर इस नवीन शाल की रचना की है, उनके सामने इसका प्रकाश पडेगा यह माशा
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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