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________________ [५] पे और यह बात पर विधानों के वाक्यों के साथ उनका मका उनके अन्यों का नाम देदेने से नहीं बन सकती थी, बैनी जन उसे गान्य न करने । दूसरे यह कि, वे मुख में अन्य परिश्रम से ही कान्य. कीर्ति मी कमाना चाहते थे-दूसरे कवियों की कृतियों को अपनी कवि प्रकट करके, सहन ही में एक अच्छे कति का पद तथा सम्मान प्राप्त करने की उनकी इच्छा थी और यह इच्छा पूरी नहीं हो सकनी थी यदि समी उद्धत पद-बाक्यों के साथ में दूसरे विद्वानों के नाम देदिये जाते । तब तो आपकी निमकी कृति प्रायः कुछ गौम रहती अषमा यो कहिये कि महत्वशय और सेबाहानसी दिवसाई पड़ती ! अतः मुख्यतया इन दोनों वित्पुत्तियों से अभिभूत होकर ही आप ऐसा होनाथरस करने में प्रवृत्त हुए है, जो एक सत्यादि के लिये कमी शोभा नहीं इसा, बल्कि उबटा साना तथा शर्मा का स्थानक होता है। शायद इस राजा तथा शर्म को उतारने या उसका कछ पारिंगार्जन करने के लिये। भट्टारकत्री ने अन्य के अन्त में, उसकी समाप्ति के बाद, एक पर निम्न प्रकार से दिया है सोकायऽथपुरातना प्रिनिखिता अम्मामिरम्पर्षत-- लदीपा व सम्मु फायरचनामुद्दीपबम्ने परम् । गानाशासमनाम यदि नषं प्रायोऽकरिष्यं त्वाम् भाशा माऽस्य मालदेति सुषिया कविस्मयोगपवार । इस पथ से नहीं यह सूनना गिलानी है कि प्रप में कुछ पुगतन पत्र भी सिख गया है यहाँ प्रकार का उन पुरातन पया के सहारे से अपनी काम्परचना को तपोतित करने अषया काव्यनति कमाने का यह माप मी बाहुन कुछ व्यक्त हो जाता है जिसका उपर उसख किया गया है। मारकमी पप के पूर्वार्ध में खिचते हैं-'हगने इस मन्प में, प्रकरणानुसार, निन पुरातन सोकों को लिखा है दीपक की तरह
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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