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________________ [२५] नासाग्रनिहिता शान्ता प्रसन्ना निर्विकारिका । वीतरागस्य मध्यस्था कर्तध्या चोचमा तथा ॥७॥ मालूम नहीं इन दोनों पधों को सोगसेनजी ने क्यों छोड़ा और क्यों इन्हें दूसरे पर्थो के साथ उद्धृत नहीं किया, बिनका उद्धृत किया जाना ऐसी हालत में बहुत जरूरी था और जिनके अस्तित्व के बिना अगला कथन कुछ अधूरा तपा संडूरा सा मालूम होता है । सच है अच्छी तरह से सोचे समझे बिना योही पयों की उठाईधरी करने का ऐसा ही नतीना होता है। (८) अन्य के दसवें अध्याय में वसुनन्दिश्रावकाचार से छह और गोम्मटसार से आठ गाथाएँ प्रायः ज्यों की लो उठाकर रखी गई है, जिनमें से एक एक गाथा नमूने के तौर पर इस प्रकार है पुवत पविहाण पि मेहुणं सम्यक्षा विवस्तो। इथिकहाविषिषची सचम बभचारी सौ । १२७ ॥ चत्वारि बि खेचाई भाउगवंधण शोह सम्म । अणुब्बयमहन्षयाई ण या पेयाउगं मोसु ॥४१॥ इनमें से पहली गाथा वसुनन्दिश्रावकाचार की २१७ नम्बर की और दूसरी गोम्मटसार की ६५२ नम्बर की गाथा है। ये गापाएँ भी लिसी कपिल शर्प का समापन करने के लिये ' ' से नहीं दी गई बल्कि वैसे ही अपनाकर अंथ का अंग बनाई गई है। प्राकृत की और भी कितनी ही गापाएँ इस अन्य में पाई जाती है। ये संब मी ' मूलाचार' आदि दूसरे अन्यों से उठाकर रखी गई हैं। (९) भूपाल कवि-प्रणीत 'बिनचतुर्विशतिका' खोत्र के मी कई पथ अन्य में संग्रहीत हैं। पहले अध्याय में 'सुप्तास्थितेन' और 'श्रीलीलायतन चौथे में किसलपितमनल्यं' और 'देव
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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