SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 269
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५६ शवशान्तात्समाकृष्य या समीर प्रपूर्यते। स पूरक इति शेयो वायुविज्ञानकोनिः ॥६६॥ यह पञ्च और इसके बाद दो पद्य और, को 'निरुणदि' और 'निसार्यते' शब्दांचे प्रारंभ होते हैं, सानार्णवके २९ ३ प्रकरणमें क्रमशः ०४,५ और पर पूर्व हैं। इससे प्रकट है कि यह अन्य मानार्णवके बादका बना हुमा है। मानाव प्रन्यके का श्रीमचंद्र भाचार्यका समय विक्रमकी ११ वी शताब्दीके लगभग माना जाता है। उन्होंने अपने इस प्रथम, समतम्र, देवनन्दि और बिनसेनका स्मरण करते हुए, 'श्रीमहाकठकस्य पातु पुण्या सरस्वती' इस पथके द्वारा भाकलंकदेवका भी ले गौरवके साथ स्मरण किया है। इस लिए यह प्रतिछापाठ, जिसमें मचना के पवनाफा गलेच पाया जाता है, मधकळकदेवका बनाया हुआ न होकर विक्रमकी ११ वी शताब्दीके बावका बना हुआ है, यह कहने में कोई संकोच नहीं होता। (३) एसथि भघरकका बनाया हुमा, 'जिनसहिता' नामका एक प्रसिद्ध अन्य है। इस प्रन्यसे सकाों पच ज्योंकि त्यों का कुछ परिवर्तन के साथ उठाकर इस प्रतिष्ठापाठमें रक्ो गये हैं। कई स्थानों पर उस संहिताका नामोलेख भी किया है और उसके अनुसार किसी खास विषयके कपनकी प्रतिक्षा या सूचना की गई है। यथाः द्वितीये मंडले लोकपालानामष्टकं भवेत् । इति पक्षान्तरं जैनसंहितायां निरूपितम् ॥ ७-१६॥ यदि ध्यासात्पृथकेषां बलिदानं विवक्षितम् । निरुप्यते व जैनसंहितामार्गतो यथा ॥ १०-६॥ पहले पथमें जैनसहिताके अनुसार भवनकी सूचना और मरेमें प्रतिज्ञा की गई है। दूसरे पद्यमें बिस बलिदान' के कपनकी प्रतिमा है उसका वर्णन करते हुए जो पुष दिये हैं सनसे पतसे पच ऐसे हैं जो रुक संहितासे ज्योकि लो उठाकर रखे गये है। जैसा किन०४७ के उत्तराधसे छेकर नं० ११ के पूर्वार्ष तक के १४ पथ विकल वही है जो उस संहिताके २४ ३ परिच्छेदमें न०३ से १६ सक दर्ज हैं। इन पद्यमिसे एक पच नमूनेके तौर पर इस प्रकार है पाशिनो धान्यदुग्धा वायो संपिष्टशर्वरी। यक्षस्य पायसं भकं साज्यं क्षीरसमीशिनः ॥ ५॥ यहाँ पाठकोंको यह बानकर और मी भाचर्य होगा कि इस प्रतिछापाठका मैयाचरण भी क संहितापरसे लिया गया है। वह मंगलाचरण इस प्रकार है विज्ञानं विमर्छ यस्य विशद विश्वगोचरं । नमस्तस्मै जिनेन्द्राय सुरेखाम्यचिंतये ॥१॥ वदित्वा च गणाधीश श्रुतस्कंधमुपास्य च। पेवंयुगीनामाचार्यानपि भक्त्या नमाम्यहम् ॥२॥
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy