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________________ ૨૨ पने श्रीवर्धमानस्वामीको श्मशानभूमिमें ध्यानात देखकर और उन्हें विद्याल्मी मनुष्य समझकर उन पर उपद्रव किया। प्रातःकाल जब उसे यह मालम हुमा कि वे धीवर्षमान चिनेंद्र थे सब उसे अपनी कृति पर बहुत पश्चात्ताप हुमा । उसने भगवानको खति की और उनके चरम ए। चरणोंको छुते ही उसके हाथसे चिपठा हुमा यह गर्वका सिर गिर पड़ा। यह सब कथन श्वेताम्बर शाकि बिलकुल विरुद्ध है। श्वेताम्बरोंके आवश्यक सूबमें महादेवको जो फया लिखी है और जिसको मुनि वात्मारामजीने अपने तत्वावशी नामक प्रयके १२ परिच्छेदमें मद्धत किया है उससे यह सब कवन विस्कळ ही विलक्षण मालूम होता है। उसमें महादेव (महेयर) के पिताका नाम " सास्यकि 'न बताकर स्वयं महादेवका ही असली नाम 'सात्यक्ति प्रगट किया है और पिताका नाम 'पेढास' परिवाजका पतलाया है। लिखा है कि, पेडासने अपनी विद्यामका काम करने के लिए किसी प्रचारिणीसे एक पुत्र उत्पन्न करनेकी जरूरत समाप्तकर ज्यो' नामकी साध्वीसे ब्यमिवार किया और उससे सात्यकि नामके महादेव पुत्रको उत्सा करके उसे अपनी संपूर्ण विद्याभोंका दान कर दिया। साथ ही, यह भी लिखा है कि 'बह सात्यकि नामका महेकर महावीर भगवानका अविरतसम्यग्दृष्टि श्रापक या'। इस लिए उसने किसी चारित्रका पालन किया, मुनिदीक्षा की, घोर तपश्चरण किया और उससे प्रष्ट हुमा, इत्यादि पातोंका उसके साथ कोई सम्बंध ही नहीं है। महादेवने विद्याघरोंकी माठ कन्यामोंसे विवाह किया, वे मर गई, तव पार्वती विवाह किया, पार्वतीसे भोग करते समय त्रिशल विद्या नष्ट हो गई, उसके स्थान प्राणी विद्याको सिब करनेकी चेष्टा की गई, विषाकी विक्रिया, गधेके सिरका हायक चिपट जाना और फिर उसका वर्धमान स्वामी के चरण छूने पर छूटना, इन सब बातोंका भी वहां कोई बदेश नहीं है। इनके स्थानमें लिखा है कि 'महादेव बड़ा कामी और व्यभिचारी था, यह अपनी विद्या पळसे जिस किसीकी कन्या या सीखे पाहता या विषय सेवन करता था, लोग उसकी विधाके मयसे कुछ बोल नहीं सकते थे, जो कोई बोलता था उसे यह मार गलता था, इत्यादि । अन्तमें यह भी लिखा है कि 'धमा (पार्वती) एक पेशा थी, महादेव उस पर मोहित होकर उसीके पर रहने लगा था। और पायोत नामके रानाने, उमासे मिलकर और उसके द्वारा यह भेद मालम करके कि भोग करते समय महादेवकी समस्त विद्याएँ उससे अलग हो जाती है, महादेषको उमासहित भोगममावल्याने अपने सुभटों द्वारा मरवा डाला था और इस तरह पर नगरका उपद्रव किया था। इसके बाद महादेवकी उसी भोगावस्थाकी पूजा प्रचलित होने का कारण बतगया है। इससे पाठक भने प्रकार समक्षसकते है कि पनसागरजी गणीका सपर्यंजकपन वेताम्बर शाकि इस कयनसे कितना विलक्षण और विभिन्न है और ये कहाँ तक इस पर्मपरीक्षाको वेवाम्वरवका रूप देनेमें समर्थ हो सके हैं।गणीनीने विना सोचे समझे
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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