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________________ यह कथन यद्यपि विगम्वरसम्प्रदायकी दृष्टि से सत्य है और इसी लिए अमितगतिने अपने अंधके १५३ परिच्छेदमें इसे मैं. ५५ पर दिया है। परन्तु श्वेताम्बरसम्प्रदायको इष्टिसे यह कथन मी विरुद्ध है। श्वेताम्बकि " पांडषचरित्र' मादि प्रथोंमें 'मनी के पुत्रोंका भी मोक्ष जाना लिखा है और इस तरह पर पाँचों ही पाण्डघोंक लिए मुकिका विधान किया है। (७) पनसागरजीने, अपनी धर्मपरीक्षामें, एक स्थान पर यह पत्र दिया है: चाकदर्शनं कृत्वा भूपी शुक्रवृहस्पती। प्रचुचौ स्वेच्छया कर्तुं वकीयेन्द्रियपोषणम् ॥ १३६५ ।। इसमें एक और मूहस्पति नामके दो राजाओंको चायाक' दर्शनका चलानेवाला शिक्षा है, परन्तु मुनि भात्मारामबीने, अपने 'तत्यादर्श' अंथके ४ थे परिच्छेदमें, 'शीलतरंगिणी' नामक किसी श्वेताम्बरसानके भाधार पर, चावांक मतको उत्पासिविषयक जो कथा दी है उससे यह मालम होता है कि चार्वाक मत किसी रावा.मा क्षत्रिय पुरुषके द्वारा न चलाया पाकर केवल हस्पति नामके एक प्राह्मणद्वारा प्रवर्तित हुआ है, जो अपनी बालविषषा पहनदै भोग करना चाहता था। भोर स लिए पहनके इससे पाप तथा लोकलवाका भय निकालकर अपनी इच्छा पूर्तिकी गरजसे ही उसने इस मतके सिद्धान्तोंकी रचना की थी। इस कथनसे पानसागरजीका उपर्युक कयन मी श्वेताम्बर शाओंके विरुद्ध पड़ता है। (0) इस श्वेताम्बर 'धर्मपरीक्षा में, पच नं० ७८२ ५९ वक, गधेके शिरच्छेदका इतिहास बताते हुए, लिखा है कि 'ज्येष्ठाके गर्भसे उत्पन्न हुआ शंमु ( महादेष) सात्यकिका बेटा था। घोर तपश्चरण करके उसने बहुतसी विधाओंका खामिल प्राप्त किया था। विद्यामोंके पैमयको देखकर वह इस वर्ष अष्ट हो गया। उसने चारित्र (मुनिधर्म ) को छोड़कर विधाघरोंकी भाठ कन्याभोंसे विवाह किया। परन्तु वे विद्यापकी आठों ही पुत्रियों महादेषके साथ रतिकर्म करनेमें समर्थ न हो सकी मोर मर गई। तब महादेवने पार्वतीको रतिकर्ममें समर्व समासकर उसकी याचना की और उसके साथ विवाह किया। एक दिन पावंतीके साथ भोग करते हुए उसकी 'त्रिशूल' पिया नष्ट हो गई। उसके नष्ट होनेपर वह 'ब्राह्मणी ' नामकी इसरी वियाको सिद्ध करने लगा। जब वह 'प्रामणी' विद्याकी प्रतिमाको सामने रखकर बप कर रहा था तब उस विधाने अनेक प्रकारको विक्रिया करनी शुरू की । उस विक्रियाके समय जब महादेखने एक बार उस प्रतिमा पर दृष्टि शाली तो उसे प्रतिमा के स्थान पर एक चतुमुखी मनुष दिखलाई पड़ा, जिसके मस्तक पर गका सिर था। उस गधेके सिरको वढता हुमा देखकर उसने शीघ्रता के साथ उसे काट गम । परन्तु यह सिर महादेवके हायको चिपट गया, नीचे नहीं गिरा। तब ब्राह्मणी विद्या महादेवको साधनाको अर्थ करके बली गई। इसके बाद रात्रिको महादे
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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