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________________ [३५] उन्हें इस तर्पण को बैनधर्म का सिद्धान्त सिद्ध करने के लिये कोई ठीक युक्ति सूझ नहीं पढ़ती थी, इसीसे वे वैसे ही यद्वा तसा कुछ महकी बहकी बातें लिखकर पंथ के कई पेनों को रंग गये हैं। और शायद यही वजह है नो वे दूसरों पर मूर्खनापूर्ण अनुचित कटाक्ष करने का भी दुस्साहस कर बैठे हैं, जिसकी चर्चा करना यहाँ निरर्षक भान पड़ता है। १८ श्लोक के भावार्ष में, कितनी ही विचलित बातों के पतिरित, सोनीजी लिखते हैं:___ " यद्यपि देवों में मानसिक आहार है, पितृगण कितने ही मुक्ति स्थान को पहुँच गये हैं इसलिये इनका पानी पीना असम्भव जान पड़ता है। इसी तरह यक्ष, गंधों और सारे जीवों का भी शरीर के जल का पानी (पाना!) असम्भव है, पर फिर भी ऐसा बो लिखा गया है उसमें कुछ न कुक तात्पर्य अवश्य कुपा हुआ है (जो सोनीनी की समस के बाहर है और जिसके जानने का उनके कथनानुसार इस समय कोई साधन भी नहीं है।)।" ___"यपि इस लोक का विषय असम्भव सा जान पड़ता है परन्तु फिर भी वह पाया जाता है । अतः इसका कुछ न कुछ तात्पर्य अवश्य है। व्यर्प बाते भी कुछ न कुछ अपना तात्पर्य ज्ञापन कराकर सार्थक हो जाती हैं ( परन्तु इस श्लोक की व्यय बातें तो सोनीजी को अपना कुछ मी तात्पर्य न बतमा सी)।" इन उदारों के समय सोनीजी के मस्तिष्क की हालत उस मनुष्य जैसी मालूम होती है जो घर से यह खबर पाने पर रो रहा था कि 'तुम्हारी श्री विधवा हो गई है और बब बोगों ने उसे समझाया कि तुम्हारे बीते तुम्हारी श्री विधवा कैसे हो सकती है तब उसने सिसकियाँ देते हुए कहा था कि 'यह तो मैं भी जनता हूं कि मेरे बीते मेरी खी विधवा कैसे हो सकती है परन्तु पर से नो भादमी खबर लाया है कह बड़ा ही विश्वासपात्र है, उसकी बात को मूठ कैसे कहा जा सकता २६
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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