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________________ [२२४] बिना संस्कार किये हुए मर गये हों, मरकर व्यंतर * हुए हो और मेरे हाथ से जल लेने की वांछा रखने हों तो उनको में सहन ( यह जल ) देता हूँ। इसमें कहीं भी किसी विषय का उद्देश्य नहीं है।" परंतु लोक में तो जलदान का उद्देश्य साफ़ लिखा है 'तेषां संतोषतृप्त्यर्थं - उनके सन्तोष और तृप्ति के लिये और आपने भी अनुवाद के समय इसका ? अर्थ "उनके संतोष के लिये " दिया है । यह उद्देश्य नहीं तो और क्या है? इसके सिवाय पूर्ववर्ती श्लोक नं० १० में एक दूसरा उद्देश्य भीर भी दिया है और वह है 'उस पाप की विशुद्धि जो शारीरिक मल के द्वारा जल को मैला अपवादूपिन करने से उत्पन्न होता है ' । यथा:* यन्मया दुष्कृतं पाएं [दूषितं तोयं ] शारीरमलसंमत्रम् [चात् ] तत्पापस्य विशुद्ध्यर्थं देवानां सर्पयाम्यहम् ॥१०॥ ऐसी हालत में सोनी जी का यह तर्पण के उद्देश्य से इनकार करना, उसे भागे चलकर श्लोक के दूसरे अधूरे धर्म के नीचे छिपाना और इस तरह स्वपरप्रयोजन के बिना ही + तर्पण करने की बात कहना कितना हास्यास्पद जान पड़ता है, उसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं। क्या यही गुरुमुह से शास्त्रों का सुनना, उनका मनन करना और मापा की ठीक योग्यता का रखना कहलाता है, जिसके लिये आप अपना अहंकार प्रकट करते और दूसरों पर आक्षेप करते हैं ? मालूम होता 'है सोनीजी उस समय कुछ बहुत ही विचलित और अस्थिरचित थे । - * 'स्यन्तर' का यह नामनिर्देश मूल लोक में नहीं है। x यह हिन्दुओं का यक्ष्मतर्पण का लोक है और उनके यहाँ इसका चौथा चरण ' यक्ष्मैतत्ते तिलोदकम् ' दिया है । (देखो 'आन्हिकांचन') 4 + प्रयोजनमनुद्दिश्य न मंदोऽपि प्रवर्तते । -- बिना प्रयोजन उद्देश्य के तो सूर्ख की मी प्रवृत्ति नहीं होती । फिर सोमीजी ' ने क्या समझकर यह विना उद्देश्य की बात कही है ॥
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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