SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [108] स्त्री-पुरुषों की जिस गति का उल्लेख किया है यह और भी विचित्र है । - आप लिखते हैं:--~ * ऋतुखा तु यो भायां सनिधो नोपय [ग] च्हति । घोरायां भ्रूणहत्यायां पितृभिः सह मन्वति ॥ ४६ ॥ ऋतुखाता तु या नारी पर्ति नैवोपचिन्दति । शुनी बुकी शृगाली स्याच्छूकरी गर्दमी च सा ॥ ५० ॥ " अर्थात् जो पुरुष अपनी मुखाता ऋतुकाल में खान की हुईश्री के पास नहीं जाता है-उससे भोग नहीं करता है - वह अपने 'पितरों सहित भ्रूणहत्या के घोर पाप में डूबता है--- खयं दुर्गति को प्राप्त होता है और साथ में अपने पितरों, ( माता पितादिकं ) को भी 'ले मरता है। 'और नो श्रृतुखाता जी अपने पति के साथ भोग नहीं 'करती है वह मर कर कुती, भेदिनी, गीदड़ी सूभरी और गंधी होती है। * इस पद्य का कार्य देने के बाद सोनीओ ने एक बड़ा ही पिल्ल'क्षण' भावार्थ' दिया है ओ इस प्रकार है: "माचार्थ - कितने ई लोग ऐसी बातों में आपति करते हैं। इसका कारण यही है कि वे श्राजकल स्वराज्य के नसे में चूर हो रहे है | अतः हरएक को समानता देने के आवेश में आकर उस क्रिया के चाहने वाले लोगों को भड़का कर अपनी स्याति-पूजा आदि चाहते हैं । उन्होंने धार्मिक विषयों पर आघात करना ही अपना सुख्य कर्तव्य समझ लिया है ।" इस भावार्थ का मूल पद्य अथना उसके अर्थ से ज़रा भी सम्बंध नहीं है। ऐसा मालूम होता है कि इसे लिखने हुए सोनजी खुद ही किसी गहरे- नशे में चूर थे । अन्यथा, ऐसा बिना सिर पैर का महाकापजनक 'भावार्थ' कभी भी नहीं लिखा जा सकता था । •
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy