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________________ कि महारानी हमें मनुष्यत्व से मिकर पशुओं से में गया बीता बनाना चाहते थे और उन्होंने हमारे उदार दयाधर्म को कलंकित ताप विडम्बित करने में कोई कसर नहीं रखी। और यदि ऐसा नहीं है तो उनके उक्त हार का भिर कुछ मी मूल्य नहीं रहता-वह निरर्षक और निमार बान पड़ता है। मालूम होता है महरकणी ने स्पृरणा अश्रय की समीचीन नीति को ही नहीं सममा पोर इसीलिये उन्होंने बिना सोचे समझे ऐसा उटपटांग विष मारा कि 'इन लोगों को कभी भीनना चाहिये । मानो ये मनुष्य स्थायी अछूत हो चौर बस मन से मी गये बीते में बिसे हम प्रतिदिन छूत है ॥ मनुष्यों से चोर इतनी घृणा धन्य है ऐसी समसमा धार्मिक मुद्धि को l मत में, भारकाची ने बिस लोकापवाद का मय प्रदर्शित किया है बह इस संपूर्ण निषेचन पर से मूखों की मूर्खता के सिवाय और कुछ भी नहीं रह जाता, इससे उस पर कुछ विधमा व्यर्थ है । निःसंदेह, जब से इन मटारकनी से महात्माओं की कृपा से जैनधर्म के साहिल में इस प्रकार के मनुदार विचारों का प्रवेश होकर विकार प्रारम्भ हुआहै तब से जैनधर्म को बहुत बचा धक्का पहुँचा है और उसकी सारी प्रगति रुक गई। वास्तव में, एसे सकोर्स तथा मनुवार विचारों के अनुकूल पखने वाले ससार में कमी कोई उन्नति मही कर सकते और न च तथा महान् बन सकते हैं। भूतकाल में भोग न करने वालों की गति । (२९) मा अध्याय में महारकची में यह को लिखा हो। कि कार में भोग करने पाना मनुष्य परमगति (मोक्ष) को प्रक होता है और उसके ऐसा सवीन पुत्र पैदा होता है बो पितों के वर्ग प्राप्त कर देता है। परन्तु अनुसार में भोग न करने वाले * अनाप शामिगमी तु प्राति परम गतिम् । जकुमा समवेरपुना पितवां स्वर्गको मत । सापू मसावि के धर्म १०० कासरा है।
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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