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________________ का पूजन चाहे घर के लिये किया जाय, चाहे लोकाचार की दृष्टि से किया जाय और चाहे किसी के अनुः रोष से किया जाय, वह सबसम्यग्दर्शन की हानि करने चाला है--अथवा यों काहिये कि निध्यात्व को बढ़ाने वाला है। यथा: घराय लोकवार्तामुपरोधार्थमेव यां। उपासनममीषां स्यात्सम्यग्दर्शनहानये ॥ . पंचाध्यायी में भी लौकिक सुखसम्पचि के लिये क्रुदेवाराधन को 'लोकमूढता बतलाते हुए, उसे 'मिथ्यालोकाचार' बताया है और इसीलिये त्याज्य ठहराया है-यह नहीं कहा कि लौकिका. चार होने की वजह से वह मिथ्यात्व ही नहीं रहा। यथा:-- जुदेवायधनं कुर्यादकिय से कधीः । सपालोकोपचारत्वादश्रेया नाकमूहता। ___इससे यह स्पष्ट है कि कोई मिथ्याक्रिया महज लोक में प्रचलित अथवा लोकाचार होने की वजह से मिथ्यात्व की कोटि से नहीं निकल जाती और न सम्पक्रिया ही कहला सकती है । जैनियों के द्वारा, पास्तव ने, बौकिक विधि अपना लोकांचार वहीं तक मान्य किये जाने के योग्य हो सकता है वहाँ तक कि उसैसें उनके सम्यक्त्व में बाधा न भाती हो और में व्रतों में ही कोई दूषण लगता हो; जैसा कि सोमवार के निम्न वाक्य में भी प्रकट है। सर्व पंव बिनोनों प्रमाण लौकिको विधिः। या सम्यक्त्वामिने पत्र में प्रदूषणंम् ॥ यशस्तिक्षक ऐसी हालत में मारकबी को उक्त हेतुवाद किसी तरह भी युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता और न सम्पूर्ण लोकाचार हो, बिना किसी विशेषता के, महज़ लोकाचार होने की वजह से मान्य किये जाने के योग्य ठहरता
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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