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________________ [ ६४ ] यही उक्त पथों का परिचय है । इस परिचय पर से सहृदय पाठक सहज ही में इस बातका अनुभव कर सकते हैं कि ये सब पद्म यहाँ पर पदस्य ध्यान के वर्णन में, पूर्वापर सम्बंध अथवा कपनक्रम को देखते हुए, कितने असंबद्ध तथा बेढंगे मालूम होते हैं और इनके यहाँ दिये आने का उद्देश्य तथा श्राशय कितना स्पष्ट है । एकसौ आठ भेदों की 1 यह गणना भी कुछ विलक्षण जान पड़ती है - भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालके भेद से मी हिंसादिक में कोई प्रकार - भेद होता है यह बात इस ग्रंथसे ही पहले पहल जानने को मिली। परंतु यह बात चाहे ठीक हा या न हो किन्तु ज्ञानार्णव के विरुद्ध जरूर है; क्योंकि ज्ञानावि में हिंसा भूत, भविष्यत और वर्तमान ऐसे कोई भेद न करके उनकी जगह पर संरंभ, समारंभ, और धारंभ, नाम के उन मेदों का ही उल्लेख किया है जो दूसरे तत्वार्थ ग्रंथों में पाये जाते हैं; जैसा कि उसके निम्न वाक्य से प्रकट है --- रम्भादित्रिकं योगेः कषायैर्व्याहतं क्रमात् । शवमष्टाधिकं ज्ञेयं हिंसा भेदेस्तु पिरिचतम् ॥६- १०॥ यहाँ पर मैं अपने पाठकों को इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि सोनीजी ने अपनी अनुवाद पुस्तक में पद्म नं० प और प के मध्य में 'उकं च तत्वार्थे' वाक्य के साथ संरंभसमारंभारंभयोग' नाम के तत्वार्थ सूत्र का भी अनुवादसहित इस ढंग से उल्लेख किया है जिससे वह मट्टारकजी के द्वारा ही सदूधृत जान पड़ता है । परंतु मराठी अनुवाद वाची प्रति में वैसा नहीं है। हो सकता है कि यह सोनीजी की ही अपनी कर्तत हो । परंतु यदि ऐसा नहीं है किन्तु भट्टारकमी ने ही इस सूत्र को अपने पूर्व कथन के समर्थन में उद्घृतं किया है और वह ग्रंथ की कुछ प्राचीन प्रतियों में इसी प्रकार से उद्धृत पाया जाता है तो कहना होगा कि भट्टारकजी ने इसे देकर अपनी रचना
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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