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________________ [ १ ] त्रिभुवननमोहकरी विधेयं प्रसवपूर्व नमनाता । एकाक्षरीति संज्ञा अपतः फलदायिनी मित्यम् ॥ ७३ ॥ # यहाँ 'ह्रीं' पद में हकार को पार्श्वनाथ भगवान का, नीचे के रफार को तखगत धरखेन्द्र का और बिन्दुसहित ईकार को पद्मावती का वाचक बसलाया है— अर्थात् यह प्रतिपादन किया है कि यह 'ह्रीं' मंत्र घरपेंद्र पद्मावती सहित पार्श्वनाथ जिनेंद्र का द्योतक है। साथ ही, इसके पूर्व में 'ॐ' और अंत में 'नमः' पद लगा कर 'ॐ ह्रीं नमः' ऐसा जप करने की व्यवस्था की गई है, और उसे त्रिभुवन के लोगों को मोहित करने वाली 'एकाचरी विद्या' लिखा है। परंतु ज्ञानाय में इस मंत्र का ऐसा कोई विधान नहीं है उसमें कहीं भी नहीं लिखा कि 'हाँ' पद धरणेंद्रपभावती सहित पार्श्व निन का बाचक है व्ययका 'ॐ ह्रीं नमः' यह एकाक्षरी विद्या है और इसलिये मट्टारकनी का यह सब कथन ज्ञानावि-सम्मत न होने से उनकी प्रतिज्ञा के विरुद्ध है। (६) इसी तरह पर महारकनी ने एक दूसरे मंत्र का विधान भी निम्म प्रकार से किया है: ॐ नमः सिद्धमित्तन्मत्रं सर्वसुखमदम् । खपत फलती स्वयं गुरावृंमितम् ॥ ८२ ॥ 1 इसमें 'ॐ नमः सिद्धं मन के बाप की व्यवस्था की गई है और उसे सर्व सुखो का देने वाला तथा इट फस का दाता लिखा है। यह मंत्र भी ज्ञान में नहीं है। अतः इसके सम्बन्ध में भी महारकली पर प्रतिज्ञाविरोध पाया जाता है। इस पद्म के बाद ग्रंथ में, 'इत्थं मंत्रं स्मरति सुगुणं यो नरः सर्वकाल' (८३) नामक एक के द्वारा आम तौर पर मंत्र स्मरण के फल का उल्लेख करके, एक पथ विच प्रकार से दिया है:--
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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