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________________ [..] यहाँ पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि महारकनी ने रूपस्थ ध्यान के अनन्तर 'रूपातीत' ध्यान का लक्षण एक पत्र में देने के बाद 'मातश्चोत्थाय से लेकर 'षडावश्यकसत्कर्म' तक १७ पद्य दिये हैं, जो अंथ में 'प्रात:काल सम्बंधी क्रियाएँ और 'सामायिक' शीर्षकों के साथ नं. ५० से १६ तक पाये जाते हैं। इन पथों में प्रातःकाल सम्बन्धी विचारों का कुछ उल्लेख करके सामायिक करने की प्रेरणा की गई है और सामायिक का स्वरूप आदि मी बतलाया गया है। सामायिक के बक्षण का प्रसिद्ध श्लोक 'समता सर्वभूतेषु' इनमें शामिल है, 'योग्य काखासन' तथा 'जीविते मरणे' नाम के दो पद अनगारधर्मामृत के भी उद्धृत हैं और 'पापिष्ठेन दुरात्मना' नाम का एक प्रसिद्ध पच प्रतिक्रमण पाठ का भी यहाँ शामिल किया गया है। और इन सब पषों के बाद 'पदस्य ध्यान' का कुछ विशेष कथन भारम्भ किया गया है । ग्रंथ की इस स्थिति में उक्त १७ पण यहाँ पर बहुत कुछ असम्बद्ध तथा बेढंगे मालूम होते हैं-पूर्वापर पद्यों अथवा कथनों के साथ उनका सम्बंध ठीक नहीं बैठता । इनमें से कितने ही पचों को इस सामायिक प्रकरण के शुरू में-'ध्यानं तावदई वदामि से भी पहले-देना चाहिये था। परंतु महारानी को इसकी कुछ भी सूझ नहीं पड़ी, और इसलिये उनकी रचना क्रममंगादि दोषों से दूषित हो गई, जो पढ़ते समय बहुत ही खटकती है । और भी कितने ही स्थानों पर ऐसे रचनादोष पायें जाते हैं, जिनमें से कुछ का उल्लेख पहले भी किया जा चुका है। (इ) पदस्थ ध्यान के वर्णन में, एक स्थान परमधारकानी, 'ही मंत्र के जप का विधान करते हुए, खिखते हैं, वन्तः पाश्चंजिमोऽधोरेफरतलगतः सघरेन्द्रः तुर्यस्वर सापिन्छः समवेत्पमावतीसंका ७२ ॥
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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