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________________ (५८) . अधिक पुष्टि होती है। इसके सिवाय एक स्थानपर, श्लोक नं० १३६ में, ग्राहकन्या कैसी होती है, इत्यादि प्रश्न देकर अगले लोक नं० १३७ में 'भद्रवाहुरुवाचेति -इस पर भद्रबाहु बोले, इन शब्दोंके साथ उसका उत्तर दिया गया है। प्रश्नोत्तर रूपके ये दोनों श्लोक पहले लेखमें उद्धृत किये जा चुके हैं । इनसे विलकुल स्पष्ट होजाता है कि यह सब कथन भले ही भद्रबाहुके वचनानुसार लिखा गया हो, परन्तु वह खास भद्रबाहुका वचन नहीं है और न उन लोगोंका वचन है जिनके प्रश्नपर भद्रबाहु उत्तरपसे बोले थे । क्योंकि यहाँ ' उवाच' ऐसी परोक्ष भूतकी क्रियाका प्रयोग पाया जाता है। ऐसी हालतमें कहना पड़ता है कि यह सब रचना किसी तीसरे ही व्यक्तिकी है परन्तु ऐसा होनेपर पहले श्लोकमें दिये हुए उक्त प्रतिज्ञावाक्यसे विरोध आता है और इसलिए सारे कथन पर जालीपनेका संदेह होजाता है । तीसरे नम्बरके पद्यको फिरसे जरा गौरके साथ पढ़ने पर मालूम होता है कि उसमें ' भद्रवाहुवचो यथा' के होते हुए 'यथोक्तम् । 'पद् व्यर्थ पड़ा है, उसका 'तेषां' शब्द खटकता है और चूंकि "यथोक्त पद 'लक्षणं' पदका विशेषण है, इसलिए इस पद्यमें कोई क्रियापद नहीं है और न पिछले तथा अगले दोनों पद्योंकी क्रियाओंसे उसका कोई सम्बंध पाया जाता है। ऐसी हालतमें, इस पद्मका अर्थ होता है- 'स्त्रियोंके वाम भागमें और पुरुषके दक्षिणभागमें उनका यथोक्त लक्षण भद्रबाहुके वचनानुसार । ' इस अर्थसे यह पद्य यहाँ बिलकुलं असम्बद्ध मालूम होता है और किसी दूसरे पद्मपरसे परिवर्तित करके बनाये जानेका खयाल उत्पन्न करता है। शब्दकल्पद्रुम कोशमें 'सामुद्रक' शब्दके नीचे कुछ श्लोक किसी सामुद्रकशास्त्रसे उद्धृत करके रक्ले गये . हैं जिनमेंके दो श्लोक इसप्रकार हैं: वामभागे तु नारीणां दक्षिणे पुख्यस्य च। . निर्दिष्ट लक्षणं तेषां समुद्रेण यथोदितम् ॥
SR No.010628
Book TitleGranth Pariksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages127
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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