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________________ जिनसेन-त्रिवर्णाचार। नहीं किया है । इससे त्रिवर्णाचारको. पढ़ते हुए यहीं मालूम होता है कि ये सब श्लोक और गद्य भी भद्रबाहुस्वामकि ही बचन है, 'जिनका नाम प्रकरणाके आदिमें 'श्री द्रवांहु उक्तं ' इस पदके द्वारा 'दिया गया है। . ___ इसके बाद आचारादर्शमें 'उशनाः' ऐसा नाम द्वेकर यह वाक्य 'लिखा है: " न तैलेनाभ्यक्तशिराः स्वपेत् " जिनसेनाविवर्णाचारमें भी यह वाक्य उसी क्रुमसे मौजूद है । परन्तु "जशनाः' के स्थानमें भद्रवाई' लिखा हुआ है ! नहीं मालूम, ग्रंथकाने ग्रह पुनः भद्रबाहु' का नाम लिखनेका परिश्रम क्यों उठाया, जब कि इससे पहले मध्यमें किसी दूसरेका वचन नहीं आया था। अस्तु; आचारादर्श में इस वाक्यके अनन्तर : पैठीनसिः' ऐसा लिखकर 'एक वाक्य उद्धृत किया है । जिनसेनत्रिवर्णाचारमें भी ऐसा ही किया गया है। अर्थात् 'पैठीनसिः' शब्दको बदला नहीं है । बल्कि पूर्वोक्त वाक्योंके साथमें उसे मिलाकर ही लिख रक्खा है । इसका कारण यही मालूम होता है कि, त्रिवर्णाचारके बनानेवालेकी समझमें यह नहीं आ सका कि 'पैठीनसि! किसी हिन्दू ऋपिका नाम है और इसलिए उसने इसे पिछले या अगले वाक्यसम्बन्धी कोई शब्द समझकर ज्यों का त्यों ही रख दिया है। मैठीनसिके इस वायके पश्चात् आचारादर्शमें, क्रमशः विश्ठ, आपस्तम्ब, विष्णुपुराण, और बृहस्पतिके हवालेसे कुछ गद्यपन देकर पराशरका यह वचन, उद्धृत किया है.-- "ऋतुस्नातां तु यो भायों सनिधौ नोपगच्छति । स गच्छेन्नरकं घोरं ब्रह्महेति तथोच्यते ॥" ७९ :
SR No.010627
Book TitleGranth Pariksha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages123
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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