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________________ जिनसेन-त्रिवर्णावार। बाद उसने 'भद्रबाहु का नाम लिखा है, जिससे आगेके वचनं भद्रबाहुस्वामीके समझ लिए जाय । परन्तु वास्तवमें में सबं वचन दूसरें। श्लोककी मिताक्षरा टीकाके सिवाय और कुछ नहीं हैं। इस दूसरे श्लोककी-मिताक्षरा टीकामें एक स्थानपर 'शंखे' ऋषिके हवालेसे ये वाक्य दिये हुए हैं:- . . ___ “ यत्तु ब्राह्मणेन क्षत्रियायामुत्पादितः क्षत्रिय एव भवति । क्षात्रयेण वैश्यायामुत्पादितो वैश्य एव भवति । वैश्येन शूद्रायामुत्पादितः शूद्र एव भवति..। इति शंखस्मरणम् । त्रिवर्णाचारके बनानेवालेने इन वाक्योंके अन्तमेंसे । इति शंखस्मरणम्' को निकाल कर उसके, स्थानमें ' इति समंतभद' बना दिया है, जिससे ये वचन, समंतभद्रस्वामीके समझे जायें। इसी प्रकार छठे श्लोककी टीकामें जो 'यथाह शंखः' लिखा हुआ था, उसको बदलकर यथाह.गौतमः' बना दिया है। यद्यपि इस प्रकारकी बहुत कुछ चालाकी और बनावट की गई है, परन्तु फिर भी ग्रंथकर्ता द्वारा इस प्रकरणकी असलियत,छिपाई हुई छिप नहीं सकी। स्वयं गवरूप टीका इस बातको प्रगट कर रही है कि वह वैदिक धर्मसे सम्बन्ध रखती है। उसमें अनेक स्थानों पर स्मृतियोंके. वचनोंका उल्लेख है और पाँचवें श्लोककी टीका ६ प्रकारके प्रतिलोमजोंकी वृत्तियोंके सम्बन्धमें साफ़ तौरसे औशनस-धर्मशास्त्र.' को देखनेकी प्रेरणा की गई है, जो हिन्दूधर्मका एक प्रसिद्ध स्मृतिग्रंथ है । यथाः-.. ........ एते च सूतवैदोहिकचांडालमागधक्षत्रायोगवाः पद्धतिलोमजाः एतेषां च वृत्तयः औशनसे मानवे द्रष्टव्याः।' मालूम होता है कि 'औशनसे मानवे इन शब्दोंसे त्रिवर्णाचारके कर्ताकी समझमें यह नहीं आ सका है कि इनमें किसी हिन्दू. धर्मके ग्रंथका उल्लेख किया गया है। इसीलिए वह इन शब्दोंकों बदल . . ७५
SR No.010627
Book TitleGranth Pariksha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages123
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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