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________________ जिनसेन-त्रिवर्णाचार। स्वामिप्रतिपादितसन्मार्गप्रवर्तमाने श्रीश्रेणिकमहामंडलेश्वरसमाचरितसन्मार्गावशेषे संम्वत् १७३१ प्रवर्तमाने अ० संवत्सरे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरे........." मालूम होता है कि यह संकल्पमंत्र किसी ऐसी याददाश्त (स्मरणपत्र ) परसे उतारा गया है, जिसमें तत्कालीन व्यवहारके लिए किसीने संवत् १७३१ लिख रक्खा था । नकल करते या कराते समय ग्रंथक को इस संवत्के बदलनेका कुछ ख़याल नहीं रहा और इस लिए वह बराबर ग्रंथमें लिखा चला आता है। कुछ भी हो, इस सम्वत्से इतना पता ज़रूर चलता है कि यह ग्रंथ वि० संवत् १६६५ ही नहीं, बल्कि संवत् १७३१ से भी पीछेका बना हुआ है । जहाँ तक मैंने इस विषय पर विचार किया है, मेरी रायमें यह ग्रंथ विक्रमकी अठारहवीं शताब्दीके अन्तका या उससे भी कुछ बादका बना हुआ मालूम होता है। इस त्रिवर्णाचारका विधाता चाहे कोई हो, परन्तु, इसमें सन्देह नहीं कि, जिसने इस ग्रन्थका निर्माण किया है वह अवश्य ही कोई धूर्त व्यक्ति था । ग्रंथमें स्थान स्थान पर उसकी धूर्तताका ख़ासा परिचय मिलता है। यहाँ पाठकोंके संतोषार्थ, ग्रंथकर्ताकी इसी धूर्तताका कुछ दिग्दर्शन कराया जाता है । इससे पाठकों पर ग्रंथकर्ताकी सारी असलियत खुल जायगी और साथ ही यह भी मालूम हो जायगा कि यह त्रिवर्णाचार कोई जैनग्रंथ हो सकता है या कि नहीं: (१) हिन्दूधर्मशास्त्रोंमें ' याज्ञवल्क्यस्मृति ' नामका एक ग्रंथ है और इस ग्रंथपर विज्ञानेश्वरकी बनाई हुई 'मिताक्षरा' नामकी एक प्राचीन टीका सर्वत्र प्रसिद्ध है । ' मिताक्षरा' हिन्दूधर्मशास्त्रका प्रधान अंग है और अदालतोंमें इसका प्रमाण भी माना जाता है। जिनसेन त्रिवर्णाचारके १३ वें पर्वमें इस याज्ञवल्क्यस्मृतिके ७३
SR No.010627
Book TitleGranth Pariksha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages123
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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