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________________ अन्य-परीक्षा। बदला है कि कहीं आशाधरका नाम आजानेसे उसका यह ग्रंथ आशाधरसे पीछेका बना हुआ अर्वाचीन और आधुनिक सिद्ध न हो जाय। यहाँ परं पाठकोंके हृदयमें स्वभावतः यह सवाल उत्पन्न हो सकता है कि ग्रंथकर्ताको समंतभद्रस्वामीका झूठा नाम लिखनेकी क्या जरूरत थी, वह वैसे ही आशाधरका नाम छोड़ सकता था। परन्तु ऐसा सवाल करनेकी ज़रूरत नहीं है । वास्तवमें ग्रंथकर्ताको अपने घरकी इतनी अक्ल ही नहीं थी। उसने जहाँसे जो वाक्य उठाकर रक्से हैं, उनको उसी तरहसे नकल कर दिया है। सिर्फ जो नाम उसे अनिष्ट मालूम हुआ, उसको बदल दिया है और जहाँ कहीं उसकी समझमें ही नहीं आया कि यह 'नाम' हैं, वह ज्यों का त्यों रह गया है । इसके सिवाय ग्रंथक्के हृदयमें इस बातका ज़रा भी भय न था,कि कोई उसके ग्रंथकी जाँच करनेवाला भी होगा या कि नहीं । वह अज्ञानान्धकारसे व्याप्त जैनसमाज पर अपना स्वच्छंद शासन करना चाहता था। इसीलिए उसने आँख बन्द करके अंधाधुंध, जहाँ जैसा जीमें आया, लिख दिया है । पाठकों पर, आगे चलकर, इसका सब हाल खुल जायगा और यह भी मालूम हो जायगा कि इस त्रिवर्णाचारका कर्ता जैन समाजका कितना शत्रु था । यहाँ पर इस समय सिर्फ इतना और प्रगट किया जाता है कि इस त्रिवर्णाचारके चौथे पर्वमें एक संकल्प मंत्र दिया है, जिसमें संवत् १७३१ लिखा है । वह संकल्प मंत्र इस प्रकार है:__“ओं अथ त्रैकाल्यतीर्थपुण्यप्रवर्तमाने भूलोके भुवनकोशे मध्यमलोके अद्य भगवतो महापुरुषस्य श्रीमदादिब्रह्मणो मते जम्बूद्वीपे तत्पुरो मेरोईक्षिणे भारतवर्षे आर्यखंडे एतदवसर्पिणीकालावसानप्रवर्तमाने कलियुगाभिधानपंचमकाले प्रथमपादे श्रीमहति महावीरचर्द्धमानतीर्थकरोपदिष्टसद्धर्मव्यतिकरे श्रीगौतम __ . ७२
SR No.010627
Book TitleGranth Pariksha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages123
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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