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________________ जिनसेन-त्रिवर्णाचार। उनके यहाँ देवताओंका कुछ ठिकाना नहीं है । वे नदी-समुद्रों आदिको भी देवता मानते हैं । परन्तु मालूम नहीं कि, त्रिवर्णाचारके कर्ताने इन नद्यादिकोंको देवता समझा है, ऋषि समझा है या पितर समझा है । अथवा कुछ भी न समझकर 'नकलमें अकलको दखल नहीं' इस लोकोक्ति पर अमल किया है । कुछ भी हो, इसमें संदेह नहीं कि, त्रिवर्णाचारके कर्ताने हिन्दूधर्मके इस तर्पणसिद्धान्तको पसंद किया है और उसे जैनियोंमें, जैन तीर्थंकरादिकोंके नामादिका लालचरूपी रंग देकर, चलाना चाहा है । परन्तु आखिर मुलम्मा मुलम्मा ही होता है। एक न एक दिन असलियत खुले विना नहीं रहती। ५-पितरादिकोंका श्राद्ध । जिनसेनत्रिवर्णाचारके चौथे पर्वमें तर्पणकी तरह 'श्राद्ध' का भी .एक विषय दिया है और इसे भी हिन्दुधर्मसे उधार लेकर रक्खा है। पितरोंका उद्देश्य करके दिया हुआ अन्नादिक पितरोंके पास पहुँच जाता है, ऐसी श्रद्धासे शास्त्रोक्त विधिके साथ जो अन्नादिक दिया जाता है उसका नाम श्राद्ध है। हिन्दुओंके यहाँ तर्पण और श्राद्ध, ये दोनों विषय करीव करीब एक ही सिद्धान्त पर अवस्थित हैं। दोनोंको 'पितृयज्ञ' कहते हैं । भेद सिर्फ इतना है कि तर्पणमें अंजलिसे जल छोड़ा जाता है; किसी ब्राह्मणादिकको पिलाया नहीं जाता। देव-पितरगण उसे सीधा ग्रहण कर लेते हैं और तृप्त हो जाते हैं। ___ * श्राद्धः-शास्त्रोकविधानेन पितृकर्म इत्यमरः । पित्रुद्देश्यकं श्रद्धयानादि दानम् । 'श्रद्धया दीयते यस्मात् श्राद्ध तेन निगद्यते' इति पुलस्त्यवचनात् श्रद्धया भन्नादेर्दानं श्राद्धं इति वैदिकप्रयोगाधीनयौगिकम् । इति श्राद्धतत्त्वम् । अपि च सम्वोधनपदोपनीतान् पित्रादीन् चतुर्थ्यन्तपदेनोद्दिश्य हवित्यागः श्राद्धम् ।. -शब्दकल्पद्रुमः। १०९
SR No.010627
Book TitleGranth Pariksha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages123
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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