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________________ जिनसेन-त्रिवर्णाचार। महापुंडहदोद्भूता हरिकान्ता महापगा। सुवर्णाप्रदानेन सुखमाप्नोति मानवः । रुक्मी (1) शिखरिसंभूता नारी स्रोतस्विनी शुभा। स्वर्णस्तेयादिजान् पापान ध्यानाचैव विनश्यति॥ रुक्मिणागिरिसंभूता नरकान्ता सुसेवनात् । पातकानि प्रणश्यति तमः सूर्योदये यथा ॥ अनेक हृदसंभूता नद्यः सागरसंयुताः। मुक्तिसौभाग्यदाव्यश्च सर्वे तीर्थाधिदेवताः ॥" इन श्लोकोंमें लिखा है कि-गंगानदीके स्मरणसे पुण्यकी प्राप्ति . होती है और स्मरण करनेवाला मुक्तिलोकको चला जाता है; रोहितास्या नदीके स्पर्शनमात्रसे सब पाप दूर हो जाते हैं; हरिकान्ता नदीको सुवर्णा देनेसे सुखकी प्राप्ति होती है; नारी नदीके ध्यानसे ही चोरी आदिसे उत्पन्न हुए सब पाप नष्ट हो जाते हैं; नरकान्ता नदीकी सेवा करनेसे सर्व पाप इस तरह नाश हो जाते हैं जिस तरह कि सूर्यके सन्मुख अंधकार विलय जाता है, और अन्तिम वाक्य यह है कि अनेक द्रहोंसे उत्पन्न होनेवाली और. समुद्रमें जा मिलनेवाली अथवा समुद्रसहित सभी नदियाँ तीर्थ देवता हैं और सभी मुक्ति तथा सौभाग्यकी देनेवाली हैं। इस प्रकार नदियोंके स्मरण, ध्यान, स्पर्शन या सेवनसे सब सुख सौभाग्य और मुक्तिका मिलना तथा सम्पूर्ण पापोंका नाश होना वर्णन किया है । इन श्लोकों तथा अर्धोके चढानेके बाद स्नानका एक 'संकल्प' दिया है। उसमें भी मन, वचन, कायसे उत्पन्न होनेवाले समस्त पापों और संपूर्ण अरिटोंको नाश करनेके लिए तथा सर्व कार्योंकी सिद्धिके निमित्त देवब्राह्मणके सन्मुख नदी तीर्थमें नान करना लिखा है । यथाः
SR No.010627
Book TitleGranth Pariksha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages123
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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