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________________ ६२ जैनाचार्योंका शासनभेद परिमाण, २ अनर्थदंड विरति, ३ भोगोपभोगपरिमाण, ४ ओव-श्यकतानुत्पादन, ५ अन्तःकरणानुवर्तन, ६ सामायिक और ७ निष्काम सेवा ( अनपेक्षितोपकार ) नामके सप्तशीलव्रत, अथवा गुणवत और शिक्षावत, स्थापित करे तो वह खुश से ऐसा कर सकता है। उसमें कोई आपत्ति किये जाने की जरूरत नहीं है और न यह कहा जा सकता है कि उसका ऐसा विधान जिनेंद्रदेवकी आज्ञा के विरुद्ध है अथवा महाचीर भगवान के शासन से बाहर है; क्योंकि उक्त प्रकारका विधान जैनसिद्धान्तोंके विरुद्ध नहीं है । और जो विधान जैनसिद्धान्तोंके विरुद्ध नहीं होता वह सब महावीर भगवान के अनुकूल है। उसे प्रका- रान्तरसे जैन सिद्धान्तोंकी व्याख्या अथवा उनका व्यावहारिक रूप समझना चाहिये, और इस दृष्टिसे उसे महावीर भगवानका शासन भी कह • सकते हैं । परंतु भिन्न शासनोंकी हालतमें महावीर भगवानने यही कहा, ऐसा ही कहा, इसी क्रमसे कहा इत्यादिक मानना मिथ्या होगा और उसे प्रायः मिथ्यादर्शन समझना चाहिये । अतः उससे बचकर यथार्थ वस्तुस्थितिको जानने और उसपर ध्यान रखनेकी - कोशिश करनी चाहिये । इसीमें वास्तविक हित संनिहित है । और यह बात पहले भी बतलाई जा चुकी है। यहाँ श्वेताम्बर आचार्योंकी दृष्टिसे मैं, इस समय, सिर्फ इतना और बतला देना चाहता हूँ कि, श्वेताम्बरसम्प्रदायमें अमतौरपर १ दिग्वत, २ उपभोगपरिभोगपरिमाण, ३ अनर्थदंडविरति, इन तीनको गुणत्रत और १ सामायिक, २ देशावका शिक, ३ प्रोषधोपवास, ४ अतिथि १ जरूरतोंको बढ़ने न देना, प्रत्युत घटाना । २ अन्तःकरणकी आवाज़के .. विरुद्ध न चलना
SR No.010626
Book TitleJainacharyo ka Shasan bhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1929
Total Pages87
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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