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________________ जैनाचार्योंका शासनभेद, परिपालना और दृढता सम्पादन करना ही सप्तशीलोंका मुख्य उद्देश्य है । और इस दृष्टिसे सप्तशीलोंमें वर्णित सामायिक और प्रोषधोपवासको नगरकी परिधि और शस्यकी वृति ( धान्यकी बाड़) के समान अणुव्रतोंके परिरक्षक समझना चाहिये । वहाँ पर मुख्यतया रक्षणीय व्रतोंकी रक्षाके लिय उनका केवल अभ्यास होता है, वे स्वतन्त्र व्रत नहीं होते। परन्तु अपनी अपनी प्रतिमाओंमें जाकर वे स्वतन्त्र व्रत बन जाते हैं और तब परिधि अथवा वृति (बाड़) के समान दूसरोंके केवल रक्षक न रहकर नगर अथवा शस्यकी तरह स्वयं प्रधानतया रक्षणीय हो जाते हैं और उनका उस समय निरतिचार पालन किया जाता है * | यही इन व्रतोंकी दोनों अवस्थाओंमें परस्पर भेद पाया जाता है। मालूम नहीं उक्त वसुनन्दी सैद्धान्तिकने, श्रीकुन्दकुन्द, शिवकोटि, तथा देवसेनाचार्य और जिनसेनाचार्यने भी, सल्लेखनाको शिक्षावतोंमें ___ * सातिचार और निरतिचारका यह मतभेद ‘लाटीसंहिता'के निम्न वाक्यसे जाना जाता है: "सातिचारं तु तत्र स्यादत्रातीचारवर्जितम् ।" इस संहितामें यह भी लिखा हैं कि व्रतप्रतिमामें यदि किसी समय किसी वजहसे इन सामायिकादिक व्रतोंका अनुष्ठान न किया जाय तो उससे व्रतको हानि नहीं पहुँचती, परन्तु अपनी प्रतिमामें जाकर उनके न करनेसे जरूर हानि पहुँचती है। जैसा कि सामायिक-विषयके उसके निम्न वाक्योंसे प्रकट है: तत्र हेतुवशात्कापि कुर्यात्कुर्यानवा क्वचित् । सातिचारवतत्वाद्वा तथापि न व्रतक्षतिः॥ अत्रावश्यं त्रिकालेऽपि कार्य सामायिकं च यत् । भन्यथा व्रतहानिः स्यादतीचारस्य का कथा॥
SR No.010626
Book TitleJainacharyo ka Shasan bhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1929
Total Pages87
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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