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________________ जैनाचार्योंका शासनभेद विवक्षित्वाल्लक्ष्यते । दिग्वतसंक्षेपकरणं चात्रा(न्य)गुणव्रतादिसंक्षेपकरणस्याप्युपलक्षणं द्रष्टव्यं । एषामपि संक्षेपस्यावश्यकतेव्यत्वात्प्रतिव्रतं च संक्षेपकरणस्य भिन्नव्रतत्वे गुणाः स्युद्वादशेति संख्याविरोधः स्यात् ।" ___पं० आशाधरजीके इन वाक्योंसे यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है कि उमास्वातिका शासन, चाहे वह किसी भी विवक्षासे* क्यों न हो, इस विषयमें समन्तभद्रके शासनसे और उन श्वेताम्बर आचार्योंके शासनसे विभिन्न है जिन्होंने 'देशावकाशिक' को शिक्षाव्रत प्रतिपादन किया है । (४) स्वामिकार्तिकेयने, अपने ‘अनुपेक्षा' प्रन्थमें देशावकाशिकको चौथा शिक्षाव्रत प्रतिपादन किया है। अर्थात् , शिक्षाव्रतोंमें उसे पहला दर्जा न देकर अन्तका दर्जा प्रदान किया है । साथ ही, उसके स्वरूपमें दिशाओंके परिमाणको संकोचनेके साथ साथ इन्द्रियों के विषयोंको अर्थात् भोगोपभोगके परिमाणको भी संकोचनेका विधान किया है । यथाः पुव्वपमाणकदाणं सव्वदिसीणं पुणोवि संवरणं । इन्द्रियविसयाण तहा पुणोवि जो कुणदि संवरणं ॥३६७॥ वासादिकयपमाणं दिणेदिणे लोहकामसमणत्थं । सावज्जवज्जणहं तस्स चउत्थं वयं होदि ॥ ३६८॥ * पं० आशाधरजीने जिस विवक्षाका उल्लेख किया है उसके अनुसार 'देशव्रत' गुणवत हो सकता है और उसका नियम भी यावज्जीवके लिये किया जा सकता है। इसी तरह भोगोपभोगपरिमाण यावज्जीविक भी होता है, ऐसा न मानकर यदि उसे नियतकालिक ही माना जावे तो इस विवक्षासे वह शिक्षाव्रतोंमें भी. जा सकता है। विवक्षासे केवल विरोधका परिहार होता है । परंतु शासनभेद: और भी अधिकताके साथ दृढ तथा स्पष्ट हो जाता है।
SR No.010626
Book TitleJainacharyo ka Shasan bhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1929
Total Pages87
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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