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________________ . जैनाचार्योका शासनभेद ___ अर्थात्-दिग्वत, अनर्थदंडवत और भोगोपभोगपरिमाण, इन तीन ब्रोंके द्वारा गुणोंकी ( अणुव्रतोंकी अथवा समन्तभद्र-प्रतिपादित अष्ट मूलगुणोंकी) वृद्धि तथा पुष्टि होनेसे आर्य पुरुष इन्हें गुणव्रत कहते हैं । देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और वैय्यावृत्य, ये चार शिक्षाव्रत बतलाये गये हैं। __इससे स्पष्ट है कि गुणवतोंके सम्बन्धमें स्वामी समन्तभद्र और कुन्दकुन्दाचार्यका शासन एक है। परन्तु शिक्षाव्रतोंके सम्बन्धमें वह एक नहीं है। समंतभद्रने 'सल्लेखना' को शिक्षाव्रतोंमें नहीं रक्खा बल्कि उसकी जगह 'देशावकाशिक' नामके एक दूसरे व्रतकी तजवीज़ की है और उसे शिक्षाव्रतोंमें सबसे पहला स्थान प्रदान किया है । रही उमास्वातिके साथ तुलनाकी बात, समन्तभद्रका शासन उमास्वातिके शासनसे दोनों ही प्रकारके व्रतोंमें कुछ विभिन्न है । उमास्वातिने जिस 'देशविरति' व्रतको दूसरा गुणव्रत बतलाया है समन्तभद्रने उसे 'देशावकाशिक' नामसे पहला शिक्षाव्रत प्रतिपादन किया है । और समन्तभद्रने जिस 'भोगोपभोगपरिमाण' नामके व्रतको गुणवतोंमें तीसरे नम्बर पर रक्खा है उसे उमास्वातिने शिक्षाव्रतोंमें तीसरा स्थान प्रदान किया है। इसके सिवाय, 'अतिथिसंविभाग' के स्थानमें 'वैय्यावृत्य' को रखकर समन्तभद्रने उसकी व्यापकताको कुछ अधिक बढ़ा दिया है। उससे अब केवल दानका ही प्रयोजन नहीं रहा बल्कि उसमें संयमी पुरुषोंकी दूसरी प्रकारकी सेवा टहल भी आ जाती है। इसी बातका स्पष्टीकरण करनेके लिये आचार्यमहोदयने, अपने ग्रन्थमें, दानार्थ-प्रतिपादक पद्यसे भिन्न एक दूसरा पद्य भी दिया है जो इस प्रकार है: व्यापत्तिव्यपनोदः पदयोः संवाहनं च गुणरागात् । वैयावृत्यं यावानुपग्रहोऽन्योपि संयमिनाम् ।।
SR No.010626
Book TitleJainacharyo ka Shasan bhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1929
Total Pages87
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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