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________________ ४४ जैनाचार्योंका शासनभेद - (२) तत्त्वार्थसूत्रके प्रणेता श्रीउमास्वाति आचार्यने यद्यपि अपने सूत्रमें 'गुणवत' और 'शिक्षाव्रत' ऐसा स्पष्ट नामोल्लेख नहीं किया, तो भी सातवें अध्यायमें सप्तशील व्रतोंका जिस क्रमसे निर्देश किया है उससे मालूम होता है कि उन्होंने १ दिग्विरति, २ देशविरति, ३ अनर्थदण्डविरतिको गुणवत; और १ सामायिक, २ प्रोषधोपवास, ३ उपभोगपरिभोगपरिमाण, ४ अतिथिसंविभागको शिक्षावत माना है । यथाः दिग्देशानर्थदंडविरतिसामायिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणातिथिसंविभागवतसम्पन्नश्च । इस सूत्रकी टीकामें—' सर्वार्थसिद्धिमें 'श्रीपूज्यपाद आचार्य भी "दिग्विरतिः, देशविरतिः, अनर्थदंडविरतिरिति । एतानि त्रीणि गुणवतानि" इस वाक्यके द्वारा पहले तीन व्रतोंको गुणव्रत सूचित करते हैं। और इसलिये बाकीके चारों व्रत शिक्षाव्रत हैं, यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है; क्योंकि शीलवत गुणशिक्षावतात्मक कहलाते हैं। सप्तशीलानि गुणव्रतशिक्षाव्रतव्यपदेशभांजीति ।। ऐसा, श्लोकवार्तिकमें, श्रीविद्यानन्द आचार्यका भी वाक्य है । इससे उमास्वाति आचार्यका शासन, और संभवतः उनके समर्थक श्रीपूज्यपाद और विद्यानन्दआचार्यका शासन भी, इस विषयमें, कुन्दकुन्दाचार्य आदिके शासनसे एकदम विभिन्न जान पड़ता है। उमास्वातिने सल्लेखनाको शिक्षाव्रतोंमें तो क्या, श्रावकके बारह व्रतोंमें भी वर्णन नहीं किया, बल्कि व्रतोंके अनन्तर उसे एक जुदा ही धर्म प्रतिपादन किया है, जिसका अनुष्ठान मुनि और श्रावक दोनों किया करते हैं । इसके सिवाय, उन्होंने गुणव्रतोंमें 'देशविरति' नामके एक नये व्रतकी कल्पना की है और, साथ ही, भोगोपभोगपरिमाण व्रतको गुणवतोंसे
SR No.010626
Book TitleJainacharyo ka Shasan bhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1929
Total Pages87
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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