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________________ ३२ जैनाचार्योंका शासनभेद . इसलिये अहिंसाणुव्रतकी प्रतिज्ञामें रात्रिभोजनका त्याग नहीं आता। उसके लिये जुदा ही नियमादिक करनेकी जरूरत होती है। इसी लिये गृहस्थोंको रात्रिभोजनके त्यागका पृथक् उपदेश दिया गया है। कुछ आचार्योंने अहिंसाणुव्रतके बाद, कुछने पाँचों अणुव्रतोंके बाद, कुछने भोगोपभोगपरिमाण नामके गुणव्रतमें और कुछने अणुव्रतोंके कथनसे भी पहले इसका वर्णन किया है । और अनेक आचार्योंने स्पष्ट तौरपर इसे छठा अणुव्रत ही करार दिया है जैसा कि ऊपर दिखलाया गया है । अतः यह एक पृथक् व्रत जान पड़ता है और उक्त आलोकितपानभोजन नामकी भावनामें इसका अन्तर्भाव नहीं होता। हाँ, महाव्रतियोंके त्यागकी दृष्टिसे, जिसमें सब प्रकारकी हिंसाको छोड़ा जाता है और गोचरीके भी कुछ विशेष नियम हैं, आलोकितपानभोजन नामकी भावनामें रात्रिभोजनके त्यागका समावेश जरूर हो सकता है। और संभवतः इसीपर लक्ष्य रखते हुए श्रीपूज्यपाद और अकलंकदेवने अपने अपने ग्रंथोंमें उक्त प्रकारके उत्तरका विधान किया जान पड़ता है। ऐसा मालूम होता है कि विकल्पको उठाकर उसका उत्तर देते समय उनकी दृष्टि अहिंसाणुव्रतके स्वरूपपर नहीं पहुँची-उनके सामने उस समय अहिंसा महाव्रतके स्वरूपका नकशा और मुनियोंके चरित्रका चित्र ही रहा है, और इस लिये, उन्होंने उसीके ध्यानमें रात्रिभोजनविरमण नामके छठे अणुव्रतको अहिंसाव्रतकी आलोकितपानभोजन नामकी भावनामें अन्तर्भूत कर दिया है। मेरा यह खयाल और भी दृढ होता है जब मैं राजवार्तिकमें उन विशेष विकल्पोंके उत्तर-प्रत्युत्तरोंको देखता हूँ जो आलोकितपानभोजनके सम्बन्धमें उठाए गये हैं; वे सब मुनियोंसे ही सम्बंध रखते हैं। जैसे कि, दीपादिकके प्रकाशमें देखभालकर रात्रिको भोजनपानकरनेमें जो आरंभ दोष होता है उसे यदि परकृतप्रदीपादि हेतुसे हटाया भी जाय तो भी भोजनके.
SR No.010626
Book TitleJainacharyo ka Shasan bhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1929
Total Pages87
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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