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________________ २४ जैनाचार्योंका शासनभेद भोजनके त्यागका व्रतोंसे पृथकरूप उपदेश दिया गया है और उनसे भोजनका सर्वथा त्याग-चारों प्रकारके आहारका त्याग-कराया गया है तब अणुव्रती गृहस्थोंको-खासकर व्रतप्रतिमाधारी श्रावकोंको-इस विषयमें उनके बिलकुल समकक्ष रखना-उनसे भी बराबरका त्याग कराना–कहाँ तक न्याय्य है, और इससे अणुव्रत और महाव्रतके त्यागमें परस्पर कुछ विशेषता रहती है या कि नहीं, यह बात हृदयमें जरूर खटकती है। प्रायः ऐसा मालूम होता है कि जिन विद्वानोंने श्रावककी छठी प्रतिमाको दिवामैथुनत्यागरूपसे वर्णन किया है-रात्रिभोजनत्यागरूपसे नहीं उन्होंने दूसरी व्रतप्रतिमामें या उससे भी पहले रात्रिभोजनका सर्वथा त्याग करा दिया है। और जिन्होंने छठी प्रतिमाको रात्रिभोजनत्यागरूपसे प्रतिपादन किया है उन विद्वानोंने या तो रात्रिभोजनत्यागका उससे पहले अपने ग्रंथमें उपदेश ही नहीं दिया और या उसका कुछ मोटे रूपसे त्याग कराया है। यहाँपर दोनोंके कुछ उदाहरण पाठकों के सामने रक्खे जाते हैं जिससे रात्रिभोजनत्याग-विषयमें आचायॊका मत-भेद और भी स्पष्टताके साथ उन्हें व्यक्त हो जाय: १ वसुनन्दी आचार्यने, अपने श्रावकाचारमें, छठी प्रतिमा 'दिवामैथुनत्याग' (दिनमें मैथुन नहीं करना) करार दी है और रात्रिभोजनका त्याग आप पहली प्रतिमावालेके वास्ते आवश्यक ठहराते हैं। आपने लिखा है कि 'रात्रिभोजनका करनेवाला ग्यारह प्रतिमाओं से पहली प्रतिमाका धारक भी नहीं हो सकता।' यथाः एयादसेसु पढगं वि जदो णिसिभोयणं कुणंतस्स । ठाणं ण ठाइ तम्हा णिसिभुत्तं परिहरे णियमा ॥ ३१४ ॥
SR No.010626
Book TitleJainacharyo ka Shasan bhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1929
Total Pages87
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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