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________________ २१ अणुव्रत और रात्रिभोजनविरति अणुव्रत और रात्रिभोजनविरति जैनधर्ममें, हिंसादिक पापोंकी देशतः निवृत्ति (स्थूलरूपसे त्याग) का नाम 'अणुव्रत' और उसकी प्रायः सर्वतः निवृत्तिका नाम ' महाव्रत' है। व्रतोंकी ये अणु और महत् संज्ञाएँ परस्पर सापेक्षिक हैं। वास्तवमें, सर्वसावद्ययोगकी निवृत्तिको 'व्रत' कहते हैं। वह निवृत्ति एकदेश होनेसे 'अणुव्रत' और सर्वदेश होनेसे ' महावत' कहलाती है। गृहस्थ लोग समस्त सावद्ययोगका-हिंसाकर्मोका-पूरी तौरसे त्याग नहीं कर सकते इस लिये उनके लिये आचार्योंने अणुरूपसे कुछ व्रतोंका विधान किया है, जिनकी संख्या और विषय-संबंधमें कुछ आचार्योंके परस्पर मत-भेद है । उसी मत-भेदको स्थूलरूपसे दिखलानेका अब यत्न किया जाता है। साथ ही, रात्रिभोजनविरतिके सम्बन्धमें जो आचार्योका शासनभेद है उसे भी कुछ दिखलानेकी चेष्टा की जायगी: स्वामीसमन्तभद्राचार्यने रत्नकरंडश्रावकाचारमें, कुन्दकुन्दमुनिराजने चारित्रपाहुड़में, उमास्वातिमुनीन्द्रने तत्त्वार्थसूत्रमें, सोमदेवसूरिने यशस्तिलकमें, वसुनन्दीआचार्यने श्रावकाचारमें, अमितगतिमुनिने उपासका चारों और श्वेताम्बराचार्य हेमचंद्रने योगशास्त्रमें अणुव्रतोंकी संख्या पाँच ' दी है जिनके नाम प्रायः इस प्रकार हैं: १ अहिंसा, २ सत्य, ३ अचौर्य, ४ ब्रह्मचर्य ५ परिग्रहपरिमाण । ये पाँचों व्रत अपने प्रतिपक्षी स्थूल हिंसादिक पापोंसे विरतिरूप वर्णन किये गये हैं। यह दूसरी बात है कि किसी किसी प्रथमें इनका दूसरे पर्यायनामोंसे उल्लेख किया गया है, परंतु नामविषयक आशय सबका एक है, इसमें कोई विप्रतिपत्ति नहीं है। श्वेताम्बरोंके 'उपासकदशा'
SR No.010626
Book TitleJainacharyo ka Shasan bhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1929
Total Pages87
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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