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________________ अष्ट मूलगुण १३. देशयति समझना चाहिये, जैसा कि ऊपर उद्धृत किये हुए पंचाध्यायीके पद्य नं० ७२६ से प्रकट है। असिल श्रावक तो वे ही हैं जो पंच अणुव्रतोंका पालन करते हैं। और इस सब कथनकी पुष्टि शिवकोटिआचार्यके निम्न वाक्यसे भी होती है, जिसमें पंच-अणुव्रतोंके पालनसहित मद्य, मांस, और मधुके त्यागको ‘अष्टमूलगुण' लिखा है और साथही यह बतलाया है कि पंच उदम्बरवाले जो अष्ट मूलगुण हैं वे अर्भकों-बालकों, मूर्यो, छोटों अथवा कमजोरों के लिये हैं। और इससे उनका साफ़ तथा खास सम्बन्ध अव्रतियोंसे जान पड़ता है यथाः मद्यमांसमधुत्यागसंयुक्ताणुव्रतानि नुः।। अष्टौ मूलगुणाः पंचोदुम्बरैश्चार्भकेष्वपि ॥ १९ ॥ -रत्नमाला । (४) ' उपासकाचार 'के कर्ता श्रीअमितगति आचार्य सोम देवादि आचार्योंके उपर्युक्त मूलगुणोंमें कुछ वृद्धि करते हैं । अर्थात्, वे 'रात्रिभोजन-त्याग' नामके एक मूलगुणका, साथमें, और विधान करते हैं । यथा:--- मद्यमांसमधुरात्रिभोजन-क्षीरवृक्षफलवर्जनं त्रिधा । कुर्वते व्रतजिघृक्षया बुधास्तन्न पुष्यति निषेविते व्रतं ॥५-१॥ ___ अमितगतिके इस कथनसे मूलगुण आठके स्थानमें नौ हो जाते हैं। और यदि 'क्षीरवृक्षफलवर्जन'को, एक ही मूलगुण माना जाय तो मूलगुणोंकी संख्या फिर पाँच ही रह जाती है। शायद इसी खयालसे आचार्य महाराजने अपने ग्रंथमें मूलगुणोंकी कोई संख्या निर्दिष्ट नहीं की। सिर्फ अन्तमें इतना ही लिख दिया है कि 'आदावते स्फुटमिह गुणा
SR No.010626
Book TitleJainacharyo ka Shasan bhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1929
Total Pages87
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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