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________________ जैनाचार्योंका शासनभेद आठ रक्खे गये हैं । परंतु इन आठ मूलगुणोंके प्रतिपादन करनेमें आचायाके परस्पर मत-भेद है। उसी मत-भेदको यहाँपर, सबसे पहले, दिखलाया जाता है: (१) श्रीसमन्तभद्राचार्य, अपने — रत्नकरंडश्रावकाचार 'में, इन गुणोंका प्रतिपादन इस प्रकारसे करते हैं मद्यमांसमधुत्यागैः सहाणुव्रतपंचकम् । अष्टौ मूलगुणानाहुहिणां श्रमणोत्तमाः ॥ अर्थात्-मद्य, मांस और मधुके त्यागसहित । पंच अणुव्रतोंके पालनको, श्रमणात्तम, गृहस्थों के अष्ट मूलगूण कहते हैं। पंच अणुव्रतोंसे अभिप्राय स्थूल हिंसा, झूट, चोरी, कुशील और परिग्रह नामके पंच पापोंसे विरक्त होनेका है। इन व्रतोंके कथनके अनन्तर ही आचार्यमहोदयने उक्त पद्य दिया है। (२) 'आदिपुराण' के प्रणेता श्रीजिनसेनाचार्य समन्तभद्रके इस उपर्युक्त कथनमें कुछ परिवर्तन करते हैं । अर्थात् , वे 'मधु-त्याग' को मूलगुणोमें न मानकर उसके स्थानमें 'घृत-त्याग' को एक जुदा मूलगुण बतलाते हैं और शेष गुणोंका, समन्तभद्रके समान ही, ज्योंका त्यों प्रतिपादन करते हैं। यथाःहिंसाऽसत्यस्तेयादब्रह्मपरिग्रहाच वादरभेदात् । द्यूतान्मांसान्मद्याद्विरतिगृहिणोऽष्ट सन्त्यमी मूलगुणाः ॥ नहीं मालूम जिनसेनाचार्यने ' मधुत्याग' को मूलगुणोंसे निकाल कर उसके स्थानमें ' द्यूतत्याग' को क्यों प्रविष्ट किया है । संभव है कि दक्षिण देशकी, जहाँ आचार्य महाराजका निवास था, उस समय
SR No.010626
Book TitleJainacharyo ka Shasan bhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1929
Total Pages87
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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