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________________ ( ५५९ ) महास्तूप का आरम्भ (३०) धातुगर्भ की रचना, (३१) धातु-निधान और (३२) तुषितपुर-गमन। दुगामणि के जीवन का सब से बड़ा काम उसकी विजयों के बाद उसके द्वारा ९ मंजिलों वाले लोह-प्रासाद तथा मरीच बट्टी और महास्तुप आदि विहारों और स्तूपों का बनवाना था। लोह-प्रासाद के पूर्ण होने के पहले ही उसे मरणान्तक रोग उत्पन्न हुआ और उसे निश्चय हो गया कि उसका अन्त काल ममीप है। अपने छोटे भाई तिस्स को बुलवा कर स्तूप के बचे हुए काम को समाप्त करवाने का आदेश दिया, जिसे उसने पूरा किया। मृत्यु से पूर्व अशक्त होने पर भी इस श्रद्धालु राजा ने पालकी में बैठ कर इस चैत्य की प्रदक्षिणा की और दक्षिण-द्वार पर आ कर वुद्ध-वन्दना की। "फिर भिक्षु-संघ से घिरे हुए राजा ने दाई करवट लेटे हुए उत्तम महास्तूप को और बाई करवट लेटे हुए उत्तम लोह-प्रामाद को देख कर चिन प्रसन्न किया।"१ मरण-शथ्या पर पड़ा हुआ राजा अपने पूर्व के युद्ध के माथियों को सम्बोधित कर कहने लगा, “पहले मैने तुम दस योद्धाओं को साथ ले कर युद्ध किया था, अब मृत्यु के साथ अकेले ही युद्ध आरम्भ कर दिया। इस मृत्यु रूपी शत्र को मै पराजित नहीं कर सका।"२ शरीर छोड़ने से पहले दुट्ठगामणि ने अपने छोटे भाई तिस्स को आदेश दिया “हे तिस्स ! असमाप्त महास्तूप का शेष सब कृत्य आदरपूर्वक समाप्त करवाना। स्वयं प्रातःकाल उस पर पुष्प चढ़ाना। प्रति दिन तीन बार उसकी पूजा करना । बुद्ध-शासन के सत्कारसम्बन्धी जो कृत्य मैंने निश्चित किए है, उन सभी कृत्यों को हे तात ! तुम अविच्छिन्न रूप से चलाते रहना । संघ-सम्बन्धी कार्य में हे तात ! कभी प्रमाद (आलस्य) न करना।" धर्म-श्रवण करने के बाद, रथ पर खड़े होकर तीन बार महास्तूप की प्रदक्षिणा कर, स्तूप और संघ को प्रणाम कर, दुट्ठगामणि तुषित-लोक को गया। इस प्रकार दुट्ठगामणि की जीवन-गाथा को यहाँ एक पूरे राष्ट्र के आदर्गों में व्याप्त महाकाव्य-गत महत्ता और प्रभावशीलता दी गई है, यह उसकी उपर्युक्त शैली से ही स्पष्ट हो जाता है। दुट्ठगामणि के बाद १. महावंस ३२॥२-३ २. महावंस ३२॥१६-१७ ३. महावंस ३२१५९-६२
SR No.010624
Book TitlePali Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatsinh Upadhyaya
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2008
Total Pages760
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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