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________________ ( ५५२ ) भारत से द्रविड़ों (दमिळ) ने वहाँ जा कर उसकी राष्ट्रीय एकता को भंग करना आरम्भ कर दिया और बहुत सा भाग अपने अधिकार में कर लिया। द्रविड़ों के द्वारा निरन्तर तंग किये जाने पर भी सिंहल के मैत्री-भावना-परायण बौद्ध राजाओं ने उनसे यद्ध करने की नहीं सोची। जो भाग द्रविड़ों ने अपने अधिकार में कर लिया था उस प्रदेश की सिंहली जनता उनके अत्याचारों से दुःखी थी। अन्त में उन्हें 'दुट्ठगामणि' के रूप में उपयुक्त नेता मिला । दुट्ठगामणि का वास्तविक नाम 'गामणि था। वह तत्कालीन बौद्ध लङ्काधिपति काकवण्ण तिस्म का पुत्र था। बड़ा उद्धन और वीर स्वभाव का था। सोलह वर्ष की अवस्था में ही उसने द्रविड़ों से लड़ने के लिये अपने पिता से आज्ञा मांगी । अहिंसक बौद्ध पिता ने नर-हिंसामय युद्ध की आज्ञा नहीं दी। गामणि उसी समय से विद्रोही हो गया। पिता के आदेश को न मानने के कारण उसके नाम के साथ इसी कारण 'दुष्ट' (8) शब्द भी लगने लगा। बाद में पिता के मरने के बाद वह शोषित सिंहली जनता का स्वाभाविक नेता हुआ। उसने एक सुसंगठित सेना तैयार कर द्रविड़ों को परास्त किया और सिंहल को एक सूत्र में बाँधा । दुट्ठगामणि सिंहल का सब से बड़ा शासक माना जाता है। उसने बौद्ध धर्म की भी बड़ी सेवा की। नौ मंजिलों का 'लोह प्रासाद' नामक बिहार उसने बनवाया । 'महाथूप' (महास्तूप') तथा अन्य अनेक स्तूप और विहार भी उसने बनवार्य । दुट्ठगामणि के बाद उसके वंशधरों में कई राजाओं के बाद प्रसिद्ध सिंहली राजा वट्टगामणि हुआ। उसी के समय में पालि त्रिपिटक को लेखबद्ध किया गया। अतः उसका शासन-काल (प्रथम शताब्दी ईसवी पूर्व) पालि-साहित्य के इतिहास में बड़ा महत्त्वपूर्ण है। वट्ठगामणि के बाद अनेक राजाओं और उनकी वंशावलियों का वर्णन करता हुआ 'दीपवंस' लङ्काधिपति महासेन (३२५-३५२ ई०) के शासन-काल तक आकर समाप्त हो जाता है। 'दीपवस' के वर्णनों का वास्तविक ऐतिहासिक महत्त्वाङ्कन क्या है, लङ्का के निश्चित इतिहास के रूप में वह कहाँ तक मान्य है, भारतीय इतिहास की परम्पगओं से उसके वर्णनों का क्या और कहाँ तक सामञ्जस्य या विरोध है, पालि साहित्य और बौद्ध धर्म के विकास के इतिहास में उसके क्या महत्वपूर्ण साक्ष्य हैं, इन सब समस्याओं का विवेचन हम यहाँ अलग से न कर 'दीपवंस' पर ही आश्रित
SR No.010624
Book TitlePali Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatsinh Upadhyaya
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2008
Total Pages760
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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