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________________ ( ३३७ ) भारत से लंका द्वीप में अपने साथ लाये । तब से आज तक गुरु-शिष्य परम्परा से यह अभिधम्मपिटक उसी रूप में चलता आ रहा है" । आचार्य बुद्धघोष का यह वर्णन ऐतिहासिक दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण है। महिन्द के लंका में अभिधम्म पिटक के ले जाने के बाद से उसके स्वरूप में कुछ भी परिवर्तन हुआ हो, इसका कोई साक्ष्य नहीं मिलता । उसके बाद अभिधम्मपिटक का स्वरूप निश्चिन और स्थिर हो गया, ऐसा हम मान सकते हैं, यद्यपि लेखबद्ध होने का कार्य तो अभिधम्मपिटक का भी संपूर्ण त्रिपिटक के साथ ही लगभग २५ ई० पूर्व वट्टगामणि अभय के समय में सम्पादित किया गया । आन्तरिक या वाह्य साध्य के आधार पर ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता जिसके आधार पर अभिधम्मपिटक के स्वरूप में तृतीय शताब्दी ईसवी पूर्व से प्रथम शताब्दी ईसवी पूर्व तक किए गए किसी परिवर्तन या परिवर्द्धन का अनुमान किया जा सके । निश्चय ही यह एक बड़े आश्चर्य की बात है कि इतने सुदीर्घ काल तक लंका में मौखिक परम्परा में चलते रहने पर भी अभिधम्मपिटक में कहीं भी ऐसे एक शब्द तक का भी निर्देश नहीं दिखाया जा सकता जिससे सिंहली प्रभाव की कल्पना की जा सुके । कुछ विद्वानों ने 'कथावत्थ' की अट्टकथा के आधार पर यह अवश्य दिखाने का प्रयत्न किया है कि 'कथावत्थु' में कुछ ऐसे सम्प्रदायों के सिद्धांतों का भो निराकरण है जो अशोक के काल के बाद प्रादुर्भूत हुए थे । चूंकि 'कथावत्थु' सें केवल सिद्धांतों का खंडन है, सम्प्रदायों का नामोल्लेख वहाँ नहीं है । अतः बहुत संभव है कि विशिष्ट संप्रदायों के साथ कालान्तर में इन सिद्धांतों का संबंध हो जाने के कारण 'अट्ठकथा' (पाँचवीं शताब्दी ईसवी) में उनका उल्लेख कर दिया गया हो, किन्तु अशोक के काल में केवल स्फुट रूप से ही इन सिद्धांतों की विद्यमानता माई जाती हो । अतः 'कथावत्थ' में निराकृत उन सिद्धांतों को भी, जिनकी मान्यता बाद के उत्पन्न कुछ विशिष्ट संप्रदायों में चल पड़ी, जिसका माध्य उसकी 'अटठकथा' ने दिया है, अनिवार्यतः अशोक के उत्तरकालीन मानना ठीक नही है । इस विषय का अधिक विशद विवेचन हम 'कथावत्थु' के विवेचन पर आते समय करेंगे । स्थविरवादी भिक्षुओं को परम्परा ने आरम्भ से ही बुद्ध वचनों को उनके मॉलिक ९. फिर भी आश्चर्य है कि सर चार्ल्स इलियट जैसे विद्वान् ने भी अभिवम्मपिटक के लंका में रचित होने की सम्भावना को प्रश्रय दिया । देखिये उनका 'हिन्दुइज्म एंड बुद्धिज्म' जिल्द पहली, पृष्ठ २७६, पदसंकेत १ तथा पृष्ठ -२९१ | यह भरपूर अज्ञान है ! २२
SR No.010624
Book TitlePali Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatsinh Upadhyaya
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2008
Total Pages760
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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