SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 346
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ३२७ ) प्रणयन या संकलन करना या करवाना नहीं है, जैना कुछ विद्वानों ने भ्रमवग समझ लिया है। पूर्व परम्पग से मौखिक रूप में प्राप्त इस ग्रन्थ को 'दोर' नामक नहामति भिक्ष ने (पुस्तकाकार) लेखबद्ध करवाया. इन गाथाओं का केवल यही अर्थ है। सम्पूर्ण त्रिपिटक के वट्टगामणि के समय से बेखबद्ध किए जाने के अचंग ( महाम३३।२४७९.८० ) में भी ऐसा ही कहा गया है। अत: उसे प्रणयन चा संकलन का सूचक नहीं मानना चाहिए। यद्यपि परिवार के संकलन-माल की तिथि निश्चित रूप से स्थापित नहीं की जा सकती, फिर भी शैली के माध्य पर उसे अभिधम्म-पिटक के समकालिक माना जा सकता है, अर्थात् कम से कम तीसरी शताब्दी ईमवी पूर्व। इस प्रकार हमने संघ की अनुमति की। जिस प्रकार धम्म की अनुमति में हमने सुत्तों का सहारा लिया, उसी प्रकार भिक्ष-संघ की स्मृति करने में दिनय-पिटक ने हमारी सहायता की। बुद्ध की अनुमति तो दोनों जगह नमान वो रही । नाथसाथ हमने तत्कालीन लोक-समाज को भी देखा, बुद्ध के देश और काल को नी देखा। इतिहास-लेखक तो इसी पर सर्वाधिक जोर देते हैं. किन्तु हमने तो प्रासंगिक बग ही सही, पर बुद्ध, अम्म और मंब की अनुस्मृति भी अवव्य की। निश्चय ही महापुरुप (बुद्ध) का जितना बड़ा दान विश्व को धम्म' का था, उनमे कम बड़ा दान संघ का भी नहीं था । वुद्धकालीन भिक्षु-संघनाक्षात् साधना का निवानस्थान था। उसकी वह पवित्रता की ति ही थी जो उनकी महिमा के इतने विशाल भूखंड पर विस्तार का कारण हुई । भिक्षु-संघ के विषय में जो यह कहा गया है कि वह आहुनेय्य (निमंत्रण करने योग्य) था, पाहुणेय्य (पाहुना बनाने योग्य) था, दान देने योग्य था, अञ्जलि जोड़ने योग्य था, एवं लोक के लिए पुण्य वोने का अद्वितीय क्षेत्र था, वह उसकी पवित्रता और संयम-प्रियता को देखते हुए बिलकुल ठीक ही था। भगवान् का श्रावक-संघ 'आनिस-दायाद' नहीं था और न वह किमी लौकिक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए व्यवस्थित किया गया था, यह हमी से प्रकट होता है कि आनन्द और महाकाश्यप जैसे जानी और साधक भिओं के रहते हा भी शास्ता ने किसी को अपने बाद मंघ का संचालक नहीं बनाया। धर्म और विनय के संचालन में ही उन्होंने उसे छोड़ा। भगवान् का कोई पीटर या अली नहीं बना। कारण, यहाँ वैसा कुछ था ही नहीं जिसका किसी व्यक्ति को उनग धिकार सौपा जा सके। इतनी निवयक्तिकता विश्व के इतिहास में अन्यत्र कही नहीं देखी गई।
SR No.010624
Book TitlePali Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatsinh Upadhyaya
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2008
Total Pages760
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy