SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 261
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (अजित) (भगवान्) ( २४२ ) तृष्णा को अभिलेपन कहता हूँ । जन्मादि दुःख इसके महाभय है।" “चारों ओर सोने बह रहे है। सोतो का क्या निवारण है ? सोतों का ढंकना बतलाओ, किससे ये सोते ढाँके जा सकते है ?" “जितने लोक में सोते है, स्मृति उनका निवारण है। सोतो की की रोक प्रजा है, प्रजा से ये रोके जा सकते है।" “हे माप ! प्रज्ञा और स्मृति नाम-रूप ही है। यह पूछता हूँ, बतलाओ, कहाँ यह नाम-रूप निरुद्ध होता है ?" "अजित ! जो तूने यह प्रश्न पूछा, उसे तुझे बतलाता हूँ, जहाँ पर कि सारा नाम-रूप निरुद्ध होता है। विज्ञान के निरोध से यह निरुद्ध हो जाता है।" (अजित) (भगवान) पुगणक-माणव-पुच्छा (पुण्णक) “हे तृष्णा-रहित मल-दर्शी ! मैं आपक पास प्रश्न के सहित आया हूँ........जिन ऋषियों ने यन कल्पित किये, क्या वे यज-पथ में अ-प्रमादी थे ? हे मार्प ! क्या वे जन्म-जरा को पार हुए ? हे भगवान् ! तुम्हें यह पूछता हूँ, मुझे बताओ।" (भगवान्) “वे जो हवन करते है, लाभ के लिए ही कामों को जपते है । वे यन के योग से भव के राग से रक्त हो, जन्म-जरा को पार नहीं हुए, ऐसा मैं कहता हूं।" (पूष्णक) "हे माई ! यदि योग के योग (आसक्ति) से यज्ञों द्वारा जन्म-जरा को पार नहीं हुए तो हे मार्ष ! फिर लोक में कौन देव-मनप्य जन्म-जरा को पार हुए, तुम्हे हे भगवन् ! मैं पूछता हूँ। मुझे बतलाओ ?" (भगवान्) “लोक में वार-पार को जान कर, जिसको लोक में कहीं भी तृष्णा नहीं, जो शान्त, धूम-रहित, गगादि-विरत और आगा-रहित है वह जन्म-जरा को पार हो गया--मैं कहता हूँ।"
SR No.010624
Book TitlePali Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatsinh Upadhyaya
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2008
Total Pages760
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy