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________________ ( २३३ ) कुल वही अभिप्राय होता है जो गद्य-भाग का अथवा जो उसकी पूरक-स्वरूप होती हैं । शब्दों में भी बहुत थोड़ा ही हेर-फेर होता है, अक्सर गद्य-भाग को गाथा-बद्ध कर के रख दिया जाता है । इस गाथा-भाग को भी बुद्ध-वचन की सी प्रामाणिकता देने के लिये उसका उपसंहार करते हुए अन्त में लिख दिया जाता है, 'यह अर्थ भी भगवान् ने कहा, ऐमा मैंने मना ।" इस प्रकार गद्य-भाग और गाथाभाग दोनों एक दूसरे के साथ जुड़े हुए है । 'इतिवुनक के प्रत्येक सत्र की यही शैली है । इसका दिग्दर्शन करने के लिये एक पूरे सूत्र को उद्धृत कर देना आवश्यक होगा। एकक-निपात के इस तीसरे स्त्र को लीजिये-- “ऐमा मैने स्ना-- भगवान् ने यह कहा, पूर्ण पुरुष (अर्हत ) ने यह कहा, "भिक्षुओ ! एक वस्तु को छोडो । मैं तुम्हाग साक्षी होता हूँ तुम्हें फिर आवागमन में पड़ना नहीं होगा। किस एक वस्तु को ? भिक्षुओ ! मोह ही एक वस्तु को छोड़ो। मैं तुम्हारा साक्षी होता हूँ तुम्हें फिर आवागमन में पड़ना नहीं होगा।" भगवान ने यह कहा । इमी मम्बन्ध में यह कहा जाता है---- जिस मोह के कारण मृढ बन कर प्राणी बुरी गतियों में पड़ते हैं, उसी मोह को तत्त्वदर्शी मनुष्य सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति के लिये छोड देते हैं, छोड़ कर वे इस लोक में फिर नहीं आते। यह अर्थ भी भगवान् ने कहा, ऐसा मैने मुना।" विद्वानों में इस बारे में कुछ मन-भेद है कि 'इतिवुनक' के गद्य और पद्य भाग में कौन अधिक प्राचीन या प्रामाणिक है। किन्तु उपर्युक्त उद्धरण से यह स्पष्ट है कि संकलनकर्ता ने भी गद्य-भाग में रक्खे हुए अंश को ही बुद्ध-वचन के रूप म उद्धृत किया है और फिर उसकी व्याख्या-स्वरूप गाथा-भाग को जोड़ दिया है, जिसकी प्रशंसा मात्र करने के लिये ही उसने अन्त में यह अर्थ भी भगवान ने कहा, ऐसा मैंने सुना, जोड़ दिया है । वास्तव में, जैसा संकलनकर्ता ने स्वयं कहा है, गाथाभाग वास्तविक बुद्ध-वचन का, जो गद्य में है, अर्थ (अत्थो) ही है । मूल-बुद्धवचन के साथ इस प्रकार उसकी अर्थ-कथा देने की प्रवृत्ति त्रिपिटक के कुछ अन्य अंगों में भी देखी जाती है। 'इतिवृत्तक' में इसी प्रवृति का अनमरण किया गया जान पड़ता है। अतः 'इतिवनक' के गाथा-भाग का उसके गद्य-भाग मे उमी प्रकार का सम्बन्ध है जैसा 'उदान' के गद्य-भाग का उमके गाथा-भाग
SR No.010624
Book TitlePali Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatsinh Upadhyaya
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2008
Total Pages760
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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