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________________ ( १८१ ) देश का भला होते?" "नहीं भन्ते !” “साध भिक्षओ ! मन भी नहीं देखा। नो क्या मानते हो भिक्षुओ ! क्या तुमने देखा है या मना है, गयन-सख, स्पर्श-सख. आलस्य-सुग्व से यक्त, इन्द्रियों के द्वारों को सुरक्षित न रखने वाले भोजन की मात्रा को न जानने वाले, जागरण में अ-नत्पर, कुशल धर्मों की विपश्यना (माक्षाकार) न करने वाले, गत के पहले और पिछले पहर में जगकर बोधि-पक्षीय धर्मों की भावना न करने वाले, किसी भी श्रमण या ब्राह्मण को चित्त-मलों के क्षय से प्राप्त निर्मल चिन की विमुक्ति या प्रज्ञा-विमुक्ति को इसी जन्म में स्वयं साक्षात्कार कर, स्वयं जान कर, स्वयं प्राप्त कर विहरते ?" "नहीं भन्ते !” “साधु भिक्षुओ ! मैने भी नहीं देखा। तो भिक्षुओ! तुम्हें ऐसा सीखना चाहिये----इन्द्रिय-द्वार को सरक्षित रक्तूंगा। भोजन की मात्रा को जानने वाला होऊँगा। जागने वाला, कुशल कर्मों की विपश्यना करने वाला, रात के पहले और पिछले पहरो में वोधिपक्षीय धर्मों की भावना करने वाला, इस प्रकार में साधना में लग्न रह कर विहांगा। भिक्षओ ! तुम्हे ऐमा सीखना चाहिये।" अंगत्तर-निकाय के अठक-निपात के पजावती-पबज्जा-सत्त में महाप्रजापती गोतमी की प्रव्रज्या का विलकुल उन्ही शब्दों में वर्णन है, जैसा विनयपिटक के चुल्लवग्ग में। कपिलवस्तु के न्यग्रोधाराम में भगवान् के विहार करते समय महाप्रजापती गोतमी भगवान् के पास आकर उनसे प्रार्थना करती है, "भन्ते ! अच्छा हो, यदि मातग्राम (मात-समह-~-स्त्रियां) भी तथागत-प्रवेदित धर्म-विनय में प्रव्रज्या पावें ।" भगवान् ने उत्तर दिया, "गोतमी ! मत तुझे यह रुचे कि स्त्रियां तथागत-प्रवेदित धर्म-विनय में प्रवज्या पावें ।" महाप्रजापती दु:खी, दुर्मना, अधमुखी होकर चली गई। बाद में वह वैशाली में भगवान के पास पहुंची। वहाँ आनन्द ने स्त्री-जाति की ओर बोलते हुए भगवान् से निवेदन किया, “भन्ते ! महाप्रजापती गोतमी फुले पैरों, धूल भरे शरीर मे. दुःखी, दुर्मना, अथमवी रोती हुई द्वार-कोष्ठक के बाहर खड़ी है । भन्ते ! स्त्रियों को प्रव्रज्या की आज्ञा मिले।" "आनन्द ! मत तुझे यह रुचे।" आनन्द ने तथागत-प्रवेदित धर्म की मूल आत्मा को लेकर ही कहा, "भन्ते ! क्या तथागत-प्रवेदित धर्म में घर से वे घर प्रत्रजित हो, स्त्रियाँ स्रोत-आपत्ति-फल, मकृदागामि-फल. अनागामि-फल, अर्हत्त्व-फल को साक्षात कर सकती है ?" भगवान् को कहते देर न लगी, “साक्षात् कर सकती है, आनन्द ! ' बम प्रजापती गोतमी और आनन्द की इच्छा को पूरी होते देर न लगी। भगवान ने आट गर-धम्मों
SR No.010624
Book TitlePali Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatsinh Upadhyaya
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2008
Total Pages760
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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