SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 183
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भिक्षु कुछ कह रहा है। मुझे इसके वचन सुन लेने दे। यह मेरे लिये हितकर होगा।" इसी प्रकार एक और यक्षिणी कहती है “चुप हो जा उत्तरा ! पुनर्वसु ! शोर बन्द कर दे ! देख, मुझे इन शास्ता के वचन सुन लेने दे।" यक्ष और यक्षिणियों के रूप में यहाँ उस प्रभाव को ही अंकित किया गया है जो न केवल बुद्ध बल्कि तत्कालीन भिक्षु-भिक्षुणियों के भी पवित्र जीवन ने साधारण जनता के हृदय पर डाला था। साधारण गृहिणियाँ भी उनके वचन को सुनने के लिये कितना उत्सुक रहती थीं और उसे अपने लिये कितना कल्याणकारी मानती थीं, यह इस सुत्त में द्रष्टव्य है। इसी संयुत्त के अन्त में एक यक्ष आकर भगवान् से कहता है “भिक्षु ! मैं तुम्हें एक प्रश्न पूछता हूँ। तू इसका उत्तर दे। यदि न दे सका तो मैं या तो तेरी खोपड़ी को फोड़ दूंगा या तुझे पकड़ कर गंगा में फैंक दूंगा।" भगवान् कहते हैं “मेरी खोपड़ी को फोड़ने वाला या मुझे पकड़ कर गंगा में फैकने वाला इस संसार में कोई नहीं है। हाँ, तू इच्छानुसार प्रश्न पूछ सकता है।" यक्ष भगवान् के उत्तरों से सन्तुष्ट हो जाता है और अन्त में बुद्ध, धम्म और संघ की शरण में जाता है। इतना ही नहीं वह कृतज्ञतापूर्वक कहता है “अब मैं गाँव से गाँव , कस्बे (निगम) से कस्बे, और नगर से नगर जाकर बुद्ध द्वारा उपदिष्ट धर्म का जनताओं के कल्याण के लिये प्रचार करूँगा।" यक्ष और बुद्ध के उपर्युक्त संवाद की तुलना विंटरनित्ज़ ने महाभारत के यक्ष और युधिष्ठिर के संवाद से की है। किन्तु दोनों में बहुत अन्तर है। महाभारत में आरम्भ से लेकर अन्त तक युधिष्ठिर यक्ष की कृपा के भिक्षुक हैं और अपने उत्तरों द्वारा उसे प्रसन्न कर के ही वे अपनी विमुक्ति प्राप्त करते हैं। इसके विपरीत यहाँ यक्ष पहले ही बुद्ध पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने में असफल हो जाता है। बुद्ध-गौरव से पराजित होकर ही वह प्रश्न पूछता है और अन्त में तो वह उनका अंजलिबद्ध शिष्य ही हो जाता है। ११. सक्क-संयुत्त-देवराज शक्र की बुद्ध द्वारा प्रशंसा है । ऋग्वेद का वज्र धारी इन्द्र वौद्ध प्रभाव में आकर क्षमाशील बन गया है। वह वैसा असंयमी भी नहीं रहा। भगवान ने इस प्रशंसा में इन्द्र की क्षमाशीलता और उसकी संयम-परायणता का ही विशेष वर्णन किया है। अपने इन्हीं गुणों के कारण १. हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ५८ ।
SR No.010624
Book TitlePali Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatsinh Upadhyaya
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2008
Total Pages760
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy