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________________ ( १४१ ) कस्सप सीहनाद-सुत्त ( दीघ. १८) काश्यप (कस्सप) नामक अचेल (नन्न) साधु के साथ भगवान् का संवाद । अचेल काश्यप ने कहीं से सुन लिया है कि भगवान् बुद्ध सब प्रकार की तपस्याओं की निन्दा करते है । वह अपनी शंका लेकर भगवान् के पास आता है। भगवान् उसे कहते है कि सब प्रकार की तपस्याओं का निन्दा करने वाला उन्हें कहना तो उनकी असत्य से निन्दा करना है। "काश्यप ! मैं सव तपश्चरणों की निन्दा कैसे करूँगा?" सच्ची धर्मचर्या में भगवान् का अन्य साधु-सम्प्रदायों से कोई वैमत्य नहीं है। किन्तु सभी आचार-विचार छोड़ देना या अन्य सैकड़ों प्रकार के कायिक क्लेश देना जिनका विस्तृत विवरण इस सुत्त में है और जो उस समय की भारतीय साधना का अच्छा परिचय देते हैं, उनसे भगवान् की सहमति नहीं है। "काश्यप। जो आचार-विचार को छोड़ देता है, वह शील-सम्पत्ति, समाधि-सम्पत्ति और प्रज्ञा-सम्पत्ति की भावना नहीं कर सकता और न उनका साक्षात्कार ही कर पाता है । अतः वह श्रामण्य और ब्राह्मण्य से बिलकुल दूर है। काश्यप ! जब भिक्षु वैर और द्रोह से रहित होकर मैत्री-भावना करता है और चित्त-मलों के क्षय होने से निर्मल चित्त की मुक्ति और प्रज्ञा की मुक्ति को इमी जन्म में स्वयं जानकर, स्वयं साक्षात्कार कर विहरता है, तो वही यथार्थत: श्रमण कहलाता है और वही ब्राह्मण भी"। वास्तव में उसी की तपस्या भी सच्ची है । गील, समाधि और प्रज्ञा का तथा अतिवाद पर आश्रित कायक्लेशमयी तपस्याओं को छोड़कर मध्यम-मार्ग रूपी आर्य अष्टाङ्गिक मार्ग के अभ्यास का भी उपदेश यहाँ दिया गया है। पोट्टपाद-सुत्त (दीघ . २९) " पोट्टपाद नामक परिव्राजक से भगवान् का संवाद। आत्मा और लोक के आदि और अन्त सम्बन्धी प्रश्नों को उठाना ब्रह्मचर्य के लिये सहायक नहीं, यही यहाँ पोट्ठपाद परिव्राजक को भगवान् ने बताया है और शील, समाधि और प्रज्ञा की साधना करने का उपदेश दिया है। क्या लोक शाश्वत है या अशाश्वत, सान्त है या अनन्त, आदि प्रश्नों को भगवान् ने क्यों अव्याकृत अर्थात् अनिर्वचनीय या अकथनीय कह कर छोड़ दिया है, इसका भी समाधान करते हुए भगवान् ने कहा है “पोट्टपाद ! न ये अर्थ-युक्त, न धर्म-युक्त, न ब्रह्मचर्य के उपयुक्त, न निर्वेद के लिये, न विगग के लिये, न निरोध के लिये, न शान्ति के लिये, न ज्ञान
SR No.010624
Book TitlePali Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatsinh Upadhyaya
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2008
Total Pages760
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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