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________________ ( १४० ) नहीं चाहा, नहीं किया । अश्रु मुख, रोते हुए उन्हें सेवा नहीं करनी पड़ी। जिसे चाहा उसे किया, जिसे नहीं चाहा उसे नहीं किया। घी, तेल, मक्खन, दही, मधु और खांड से ही वह यज्ञ समाप्ति को प्राप्त हुआ" । इस प्रकार द्रव्य यज्ञ में भी भगवान् सेवकों से बेगार न लेने के विशेषतः पक्षपाती हैं । किन्तु जिस यज्ञ का उन्होंने विधान किया है वह तो इससे भी बहुत बढ़कर है । वह यज्ञ है दान-यज्ञ, त्रिशरण-यज्ञ, शिक्षापद-यज्ञ, शील-यज्ञ, समाधि यज्ञ, प्रज्ञा-यज्ञ । तथागत इसी यज्ञ के पक्षपाती हैं । महालि सुत ( दीघ. ११६) सुनक्षत्र नामक लिच्छवि-पुत्र भगवान् के शिष्यत्व को छोड़कर चला गया है। उसे आशा थी कि भगवान् के पास रहते में दिव्य शब्द सुनंगा, योग की विभूतियों को प्राप्त करूँगा, आदि । जब ऐसा न हुआ तो उसने उन्हें छोड़ दिया । इसी के वारे में प्रश्न करने के लिये महालि नामक एक अन्य लिच्छवि सरदार भगवान् के पास आया है “भन्ते ! क्या सुनक्षत्र लिच्छवि-पुत्र ने विद्यमान ही दिव्य-शब्द नहीं सुने या अविद्यमान ।" भगवान् उसे समझाते हैं कि ब्रह्मचर्य का उद्देश्य दिव्य शब्द सुनना या योगकी विभूतियोंको प्राप्त करना नहीं हैं, बल्कि उसका एक मात्र उद्देश्य तो सदाचार के जीवन के अभ्यास के द्वारा सत्य का साक्षात्कार करना है । निर्वाण के साक्षात्कार के लिये ही ब्रह्मचर्य का ग्रहण किया जाता है और उसी के द्वारा दुःख का अन्त होता है । "यही है महालि ! अधिक उत्तम धर्म जिसके साक्षात्कार करने के लिये भिक्षु मेरे पास आकर ब्रह्मचर्य पालन करते हैं ।" आर्य अष्टाङ्गिक मार्ग के अभ्यास एवं सदाचार, समाधि और प्रज्ञा के जीवन से ही निर्वाण का साक्षात्कार किया जा सकता है, यह भी अन्त में अन्य सुनों की तरह उपदिष्ट किया गया है । जालिय- सुत्त ( दीघ. ११७ ) जालिय नामक परिव्राजक मे भगवान् का संवाद । यह परिव्राजक भगवान् के पास आकर उनसे पूछता है "आवुस ' । गौतम ! जीव और शरीर अलगअलग वस्तु हैं या एक ही ?" भगवान् उसे समझाते हैं कि जीव और शरीर का भेद-अभेद कथन ही व्यर्थ है । जीवन का तत्त्व साक्षात्कार में है । अतः शील, समाधि और प्रज्ञा का निरन्तर अभ्यास करना चाहिये । १. जैसे कि मानो गोतम उससे छोटे हों ! संभवतः परिव्राजक की आयु भगवान् से अधिक थी और इस सुत्त का सम्बन्ध भगवान् की तरुण अवस्था से है ।
SR No.010624
Book TitlePali Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatsinh Upadhyaya
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2008
Total Pages760
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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