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________________ ( ११८ ) आधार पर उन अंशों को बुद्ध-परिनिर्वाण से दो या तीन शताब्दी बाद की रचना हो माना जा सकता है । अतः यह स्पष्ट है कि पालि - त्रिपिटक की प्रमाणवत्ता का एकांशेन उत्तर नहीं दिया जा सकता । उसके कतिपय अंश (जैसे महापरिनिब्बाण - सुत्त, धम्मचक्कपवत्तन सुत्त आदि, आदि ) अत्यन्त प्राचीन हैं और उनमें बुद्ध के प्रत्यक्ष जीवन और उपदेशों की सजीव और सर्वांश में सच्ची प्रतिमूर्ति मिलती है, कुछ शास्ता के परिनिर्वाण के ठीक बाद के हैं (जैसे गोपक मोग्गल्लान - सुत्त) और कुछ एक-दो शताब्दियों बाद की परम्पराओं को भी अंकि करते हैं, किन्तु ऐसे स्थल बहुत कम हैं । सुत्त और विनय-पिटक का अधिकांश भाग तो बुद्ध और उनके शिष्यों के जीवन और उपदेशों तक ही सीमित है । जो अंशबाद के भी हैं, वे भी अशोक के काल तक ही अपना अन्तिम स्वरूप प्राप्त कर लेते हैं । भाषा और शैली एवं पारस्परिक तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर हम पूर्व और परगामी तत्त्वों को अलग अलग कर सकते हैं । उदाहरणतः सुत्तों का पारस्परिक मिलान कर के हम जान सकते हैं कि किस मौलिक नमूने का आश्रय लेकर किस सुत्त को किस प्रकार परिवर्द्धित स्वरूप प्रदान किया गया है। यही हाल विनय के नियमों का है । उनमें परिवर्तन हुआ है । विनय के सभी नियम शास्ता के मुख से निकले हुए नहीं हो सकते । कुछ मौलिक आधारों को लेकर शेष की सृष्टि कर ली गई है और उनको प्रामाणिकता देने के लिये ही बुद्ध वचन के रूप में प्रख्यापित कर दिया गया जान पड़ता है । अन्यथा मानवीय विचार को इतनी अधिक स्वतन्त्रता देने वाले के द्वारा जीवन की छोटी से छोटी क्रियाओं में विधान प्रज्ञापन करना संगत नहीं बैठता । शिष्यों पर उनके प्रभाव को देखते हुए भी उनकी आवश्यकता प्रतीत नहीं होती । अतः वे बुद्ध धर्म के विकास से सम्बन्धित हैं, यह हम आसानी से जान सकते हैं । बौद्ध संगीतियों के इतिहास ने भी हमें यही बताया है कि उसके स्वरूप का निर्माण और निर्धारण द्वितीय संगीति के समय ही हुआ है जो बुद्ध-परिनिर्वाण से १०० वर्ष बाद हुई । अतः एक सीमित किन्तु निश्चित अर्थ में ही हम पालि- त्रिपिटक (विशेषतः सुत्त और विनय ) को बुद्ध - वचन कह सकते हैं जिसे ढूंढने के लिये हमें काफी समालोचना-बुद्धि, और साथ ही श्रद्धा बुद्धि की भी आवश्यकता है। समालोचना - बुद्धि के साथ-साथ श्रद्धा-बुद्धि की आवश्यकता इसलिये है कि हम भारतीयों को पालि साहित्य का परिचय पच्छिमी विद्वानों ने ही प्रारम्भिक रूप से कराया है और पच्छिमी विद्वानों को भारतीय ज्ञान और साहित्य को जानने
SR No.010624
Book TitlePali Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatsinh Upadhyaya
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2008
Total Pages760
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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