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________________ [५५] न्य विभूति, सोपक्रम निरुपमक्रम कर्मका स्वरूप, तथा उसके उसकी परिपूर्णता " जातिदेशकालसमयाऽनवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् " (योगसूत्र २-३१) मे तथा दशवैकालिक अध्ययन ४ आदि जैनशाखप्रतिपादित महावतोंमे देखनेमें भाती है। १ योगसूत्रके तीसरे पादमें विभूतियोंका वर्णन है, वे विभूतियाँ दो प्रकारकी हैं । १ वैज्ञानिक २ शारीरिक । अतीताऽनागतज्ञान, सर्वभूतरुतज्ञान, पूर्वजातिज्ञान, परचित्तज्ञान, भुवनज्ञान, तारान्यूहज्ञान, आदि ज्ञानविभूतियाँ हैं । अन्तर्धान, हस्तिवल, परकायप्रवेश, प्रणिमादि ऐश्वर्य तथा रूपलावण्यादि कायसंपत, इत्यादि शारीरिक विभूतियाँ हैं । जैनशास्त्रमें भी अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान, जातिस्मरणज्ञान, पूर्वज्ञान आदि ज्ञानलब्धियां है, और भामौषधि, विद्युडौषधि, श्लेष्मौषधि, सौंषधि, जंघाचारण, विद्याधारण, वैक्रिय, आहारक श्रादि शारीरिक लब्धिया है। देखो आवश्यकनियुक्ति (गा० ६६, ७०) लन्धि यह विभूतिका नामान्तर है। २ योगभाज्य और जैनग्रन्थोंमें सोपक्रम निरुपक्रम पायधर्मका स्वरूप बिल्कुल एकसा है, इतना ही नहीं बल्कि उस स्वरूपको दिखाते हुए भाष्यकारने ( यो. सू. ३-२२ ) के भाप्यमें प्रार्द्र वस्त्र और रणराशिके जो दो दृष्टान्त लिखे हैं, वे भावश्यकनियुक्ति ( गाथा-६५६ ) तथा विशेषावश्यक भाष्य (गाथा-३.६१ ) आदि जैनशास्त्र में सर्वत्र प्रसिद्ध हैं, पर
SR No.010623
Book TitlePatanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1922
Total Pages249
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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