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________________ (४) वृत्ति के महत्त्वका पूरा खयाल उसको मनन पूर्वक उदार दृष्टिसे पढने पर ही आसकता है। (२) योगविंशिका यह मूल अन्य प्राकृतमें है। इसका परिमाण और विषय इसके नामसे प्रसिद्ध है, अर्थात् यह वीस गाथाओंका योग सम्बन्धी एक छोटा सा अन्य है। इसके प्रणे. ताने वीस बीस गाथाओंकी एक एक विशिका ऐसी बीस' विशिकाएँ रची है, जो सभी उपलब्ध है। उनमें प्रस्तुत योगविशिकाका सत्रहवाँ नंबर है, इसमें योगका वर्णन है। इसके प्रणेताके संस्कृत भाषामें भी जैन दृष्टिके अनुसार योग पर बनाये हुए योगविंदु, योगदृष्टिसमुच्चय और पोडशक ये तीन ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं जो छप चुके हैं। इसके सिवाय उनका बनाया हुआ योगशतक नामका ग्रन्थ भी सूना जाता है। एक ही कर्ताके द्वारा एक ही विषय पर लिखे गये उक्त चारों ग्रन्थोंकी वस्तु क्या क्या है और उसमें क्या समानता तथा क्या असमानता है इत्यादि कई प्रश्न वाचकोके दिलमें पैदा हो सकते हैं जिनका पूरा उत्तर तो वे उक्त ग्रन्थोंके अवलोकन के द्वारा ही पा सकेंगे, फिर भी हमने प्रस्तुत पुस्तकमें इसका अलग सूचन किया है जिसके लिए हम पाठकोंका ध्यान प्रस्ता १ वीस वीसीयोके नाम इस प्रकार है-~-१ अधिकारविशिका, २ अनादिविशिका, ३ कुलनीतिलोकधर्मविशिका, ४ चम्मपरावर्तविशिका, ५ वीजादिविशिका, ६ सद्धर्मविशिका, ७ दानविधिविशिका, ८ पूजाविधिविशिका, ९ श्रावकधर्मविशिका, १० श्रावकप्रतिमाविशिका, ११ यतिवर्मविशिका, १२ शिक्षाविगिका, १३ भिक्षापिशिका, १४ तदन्तरायशुद्धिलिङ्गविगिका, १५ आलोचनाविशिका, १: प्रायश्रितचिशिका, १७ योगविधानविशिका, १८ केवलज्ञानविगिका, १९ सिद्धविशिश, २० सिद्धमुसविशिका ।
SR No.010623
Book TitlePatanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1922
Total Pages249
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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