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________________ कि अन्य दर्शनके साथ जैन दर्शनका किस किस सिद्धान्त में कितना और कैता वास्तविक मतभेद या मतैक्य है । इसी प्रकार केवल वैदिक दर्शनको जाननेवाले विद्वान् भी एकदेशीय दृष्टिके कारण यह नहीं जानते कि जैन दर्शन किन किन बातोंमे वैदिक दर्शनके साथ कहाँ तक और किस प्रकार मिल जाता है। इत पारस्परिक अज्ञानके कारण दोनों पक्षके विद्वान् तक भी बहुधा, एक दूसरेके ऊपर आदर रखना तो दूर रहा. अनुचित हमला किया करते हैं. जिससे साधारण वर्गमें श्रम फैल जाता है और वे खंडन मंडनमें ही अपनी शक्तिका खर्च कर डालते हैं। इस विषमताको दूर करनेके लिए ही यह वृत्ति लिखी गई है। यही कारण है कि इसका परिमाण बहुत छोटा होने पर भी इसका महत्व उत्तसे कई गुना अधिक है। जैन दर्शनकी भित्ति स्याद्वाद सिद्धान्तके ऊपर खडी है। प्रामाणिक अनेक दृष्टियोंके एकत्र मिलानको ही स्याद्वाद कहते हैं। स्याद्वाद सिद्वान्तका उद्देश्य इतना ही है कि कोई भी समयदार व्यक्ति किसी वस्तुके विषयमें सिद्धान्त निश्चित करते तमय अपनी प्रामाणिक मान्यताको न छोडे परन्तु साथ ही दूसरोंकी प्रामाणिक मान्यताओंका भी आदर करे। सचमुच स्थाद्वादका सिद्धान्त हृदयकी उदारता. दृष्टिकी विशालता, प्रामाणिक मतभेदकी जिज्ञासा और वस्तुको विविध-रूपताके खयाल पर ही स्थिर है। प्रस्तुत वृत्तिके द्वारा उसके कर्त्ताने उक्त स्याद्वादका मंगलमय दर्शन योग्य जिज्ञासुओंके लिए सुलभ कर दिया है। हमें तो यह कहने में तनीक भी संकोच नहीं है कि प्रस्तुत वृत्ति जैन और योग दर्शनके मिलानकी दृष्टिसे गंगा यमुनाका संगमस्थान है. जिसमें मतभेदरूप जलका वर्ण भेद होने पर भीदोनोंकी एकरसता ही अधिक है।
SR No.010623
Book TitlePatanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1922
Total Pages249
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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