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________________ LJ कारित अनुमोदित, प्रकाशौवरण, सोपक्रम निरूपकर्म, वज्रसंसविचारं प्रथमम् " भाष्य " अविचारं द्वितीयम् " तत्त्वा-श्र ६-४४ | योगसूत्रमें ये शब्द इस प्रकार आये हैं--"तत्र शव्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का समापत्ति: " " स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितकी" "एतयैव सविचारा निर्विचारा व सूक्ष्मविषया व्याख्याता " १ - ४२, ४३, ४४ । ३ जैनशास्त्रमे मुनिसम्बन्धी पाँच यमोंके लिये यह शब्द बहुत ही प्रसिद्ध है । " सर्वतो विरतिर्महाव्रतमिति " तत्त्वार्थ अ० ७-२ भाष्य | यही शब्द उसी अर्थ में योगसूत्र २ - ३१ में है । ४ ये शब्द जिस भाव के लिये योगसूत्र २-३१ मे प्रयुक्त हैं, उसी भाव में जैनशास्त्र में भी आते है, अन्तर सिर्फ इतना है कि जैनप्रन्धोमे अनुमोदित के स्थान में बहुधा अनुमतशब्द प्रयुक्त होता है । देखो - तत्त्वार्थ, अ, ६-६ । ५ यह शब्द योगसूत्र २ - ५२ तथा ३ - ४३ में है । इसके स्थानमें जैनशास्त्र में 4 ज्ञानावरण शब्द प्रसिद्ध है । देखो तत्त्वार्थ, अ. ६-११ आदि । 1 ६ ये शब्द योगसूत्र ३ - २२ में है । जैन कर्मविषयक साहित्यमें ये शब्द बहुत प्रसिद्ध है । तत्त्वार्थमें भी इनका प्रयोग हुआ है, देखो - प्र. २ - ५२ भाष्य | ७ यह शब्द योगसूत्र ( ३-४६ ) में प्रयुक्त है । इसके स्थान में जैन ग्रन्थोंमे वज्रऋषभनाराचसंहनन' ऐसा शब्द मिलता है । देखो तत्त्वार्थ (०८-१२) भाष्य | •
SR No.010623
Book TitlePatanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1922
Total Pages249
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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