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________________ [४५] नित्य नहीं मानता, और न वौद्ध दर्शनकी तरह उसको क्षणिक-अनित्य ही मानता है, किन्तु सांख्य आदि उक्त शेष दर्शनोंकी तरह वह उसे कूटस्थ-नित्य मानता है । २ ईश्वरके सम्बन्धमें योगशास्त्रका मत सांख्य दर्शनसे भिन्न है । सांख्य दर्शन नाना चेतनोंके अतिरिक ईश्वरको नहीं मानता, पर योगशास्त्र मानता है। योगशास्त्र-सम्मत ईश्वरका स प नैयायिक, वैशेषिक आदि दर्शनोंमें माने गये ईश्वरस्वरूपसे कुछ भिन्न है। योगशाखने ईश्वरको एक अलग व्यक्ति तथा शास्त्रोपदेशक माना है सही, पर उसने नैयायिक आदिकी तरह ईश्वरमें नित्यज्ञान, नित्यईच्छा और नित्यकृतिका सम्बन्ध न मान कर इसके स्थानमें सत्त्वगुणका १. देखो ई० कृ० कारिका ६३ सांख्यतस्वकौमुदी । देखो न्यायदर्शन ४-१-१० । देखो ब्रह्मसूत्र २-१-१४ । २-१-२७ । शांकरभाष्य सहित ।। २. देखो योगसूत्र. " सदाज्ञाताश्चित्तवृत्तयस्तत्प्रभोः पुरुषस्य अपरिणामित्वात्” ४-१८ । “चितेरप्रतिसंक्रमायास्तदाऽकारापत्ती स्वबुद्धिसंवेदनम्"४-२२ । तथा " द्वयी चेयं नित्यता, कूटस्थनित्यता, परिणामिनित्यता च । तत्र कूटस्थनित्यता पुरुषस्य, परिणामिनित्यता गुणानाम" इत्यादि ४-३३-भाष्य । ३ देखो सांस्यसूत्र १-६२ आदि ।
SR No.010623
Book TitlePatanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1922
Total Pages249
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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