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________________ [ ४४ ] अर्थात अनेक चेतन माने गये हैं । योगशास्त्र चेतनको जैन दर्शनकी तरहे देहप्रमाण अर्थात् मध्यमपरिमाणवाला नहीं मानता, और मध्वसम्प्रदायकी तरह अणुप्रमाण भी नहीं मानता, किन्तु सांख्य, वैशेषिक, नैयायिक और शांकरवेदान्त की तरह वह उसको व्यापक मानता है । इसी प्रकार वह चेतनको जैनदर्शनकी तरह परिणामि १ " कृतार्थ प्रति नष्टमप्यनष्टं तदन्यसाधारणत्वात्” २-२२ यो. सू. । २. “ असंख्येयभाग्गादिषु जीवानाम् " | १५ | " प्रदेश संहारविसर्गाभ्यां प्रदीपवत् " १६ - तत्त्वार्थसूत्र श्र० ५ । ३. देखो " उत्क्रान्तिगत्यागतीनाम्” । ब्रह्मसूत्र २-३-१८ पूर्ण भाष्य । तथा मिलान करो अभ्यंकरशाखी कृत मराठी शांकरभाष्य अनुवाद भा. ४ पृ. १५३ टिप्पण ४६ । ४. " निष्क्रियस्य तदसम्भवात् " सां. सू. १-४६. निष्क्रियस्य - विभोः पुरुषस्य गत्यसम्भवात् - भाग्य विज्ञानभित्तु । ५. विभवान्महानाकाशस्तथा चात्मा । " ७-१-२२- वै. द. ६. देखो . सू. २-३ - २९० भाग्य | ७. इसलिये कि योगशास्त्र श्रात्मस्वरूप के विषय में सांख्यसिद्धान्तानुसारी है । ८. “ नित्यावस्थितान्यरूपाणि " ३ " उत्पादव्ययत्रौव्ययुक्तं सत् "| २६ | "तद्भावाव्ययं नित्यम्” ३० | तत्त्वार्थसूत्र श्र० ५ भाष्य सहित
SR No.010623
Book TitlePatanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1922
Total Pages249
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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