SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [१५] नामक है, जो स्वरूपचिंतासे होनेवाली विषयोंकी उदासीनतासे उत्पन्न होता है । जिसका संभव आठवें गुणस्थानमें है, और जिसमें सम्यक्त्व चारित्र आदि धर्म क्षायोपशमिक अवस्था-अपूर्णता-को छोडकर क्षायिकभाव-पूर्णता-को प्राप्त करते हैं। ____सूत्र १८-सूत्रकारने संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात ये दो योग कहे हैं। जैन प्रक्रियाके साथ मिलान करते हुए उपाध्यायजी कहते हैं कि-अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षय इन पाँच भेदोंमें जो पाँचवाँ भेद वृत्तिसंचय है उसीमें उक्त दोनों योगका समावेश हो जाता है। आत्माकी स्थूल सूक्ष्म चेष्टायें तथा उनका कारण जो कर्मसंयोगकी योग्यता है, उसके हास-क्रमशः हानि-को वृत्तिसंक्षय कहते हैं। यह वृत्तिसंक्षय ग्रंथिभेदसे होनेवाले उत्कृष्टमोहनीयकर्मबंधसंबंधी व्यवच्छेदसे शुरू होता है, और तेरहवें गुणस्थानमें परिपूर्ण हो जाता है। इसमें भी आठवेंसे बारहवें गुणस्थानतकमें पृथक्त्ववितर्कसविचार और एकत्ववितर्कअविचार नामक जो शुल्ध्यानके दो भेद पाये जाते हैं उनमें संप्रज्ञात योगका अंतर्भाव है। संप्रज्ञात भी जो निर्वितर्कविचारानन्दास्मितानि सरूप है वह पर्यायरहितशुद्धद्रव्यविषयक शुक्लभ्यानमें अर्थात् एकत्ववितर्कअविचारमें अन्तर्भूत है। असंप्रज्ञात योग केवलज्ञानकी प्राप्तिसे अर्थात् तेरहवें गुणस्थान
SR No.010623
Book TitlePatanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1922
Total Pages249
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy