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रूपका कथन करना हो तब भेददृष्टिको प्रधान रखकर प्रामाणिक लोक भी ऐसा बोलते हैं कि चैतन्य यह आत्माका स्वरूप है । इस कथन से यह सिद्ध है कि जो जो 'आकाशपुष्प' यदि विकल्प शास्त्रीय है वह सब विपर्ययरूप हैं । और
चैतन्य यह पुरुषका स्वरूप है ' इत्यादि जो जो विकल्प शास्त्रप्रसिद्ध है वह सब नयरूप होनेसे प्रमाण के एक देशरूप हैं ।
निद्रावृत्ति एकान्त अभाव विपयक नहीं होती । उसमें हाथी घोडे आदि अनेक भावोंका भी कभी कभी भास होता है, अर्थात् स्वम अवस्था भी एक तरहकी निद्रा ही है । इसी तरह वह सच भी होती है । यह देखा गया है कि अनेक वार जागरित अवस्थामें जैसा अनुभव हुआ हो निद्रामें भी वैसा ही भास होता है, और कभी कभी निद्रामें जो अनुभव हुआ हो वही जागने के बाद अक्षरशः सत्य सिद्ध होता है ।
स्मृति भी यथार्थ यथार्थ दोनों प्रकारकी होती है । अतएव विकल्प आदि तीन वृत्तियोंको प्रमाण विपर्ययसे अलग कहने की खास आवश्यकता नहीं है ।
सूत्र १६ – सूत्रकारने योगके उपायभूत वैराग्यके अपर . पर ऐसे दो भेद किये हैं, उनको जैन परिभाषामें उतारकर उपाध्यायजी खुलासा करते हैं कि पहला वैराग्य ' आपा--- तधर्मसंन्यास ' नामक है, जो विषयगत दोपों की भावनासे शुरू शुरू में पैदा होता है। दूसरा वैराग्य 'तात्त्विकधर्म संन्यास'
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